अंगूर के प्रमुख रोग : कैसे करे पहचान एवं रोकथाम
नमस्कार किसान भाईयों, अंगूर की खेती (Farming of grapes) देश के विभिन्न भागों में बहुत बड़े स्तर पर की जाती है. अंगूर का फल मानव स्वास्थ्य के लिए काफी लाभदायक होता है. जिससे बाजार में मांग काफी ज्यादा होती है. इसलिए किसान भाई इसकी खेती में काफी मुनाफ़ा होता है. लेकिन अंगूर में लगने वाले रोगों के कारण किसान को इसकी खेती में नुकसान भी उठाना पड़ता है. इसलिए गाँव किसान (Gaon Kisan) आज अपने इस लेख में अंगूर के प्रमुख रोग (Grape disease prevention) के बारे में पूरी जानकारी देगा. जिससे किसान भाई अंगूर में लगने वाले रोगों के प्रकोप से बच सके. तो आइये जानते है अंगूर के प्रमुख रोग कौन-कौन से है और इनसे कैसे अपनी फसल को बचाएं-
मृदुरोमिल आसिता (Downy mildew)
अंगूर का यह बहुत ही घातक रोग है. सन 1875 के बाद फ्रांस में यह रोग महामारी का रूप लेने लगा था. भारत में इसे सर्वप्रथम पूना के पास सन 1910 में देखा गया. इस रोग में क्षति लताओं के संक्रमण से अधिक होती है. आर्द्र क्षेत्रों में इस रोग से 50 से 75 प्रतिशत तक क्षति होने की संभावना होती है.
रोग के कारक
यह रोग प्लाजमोपोरा विटिकोला नामक कवक से उत्पन्न होने वाला रोग है.
रोग की पहचान
इस रोग के आरम्भ में इसके लक्षण पौधे के नए और मुलायम भाग से होता है. ये लक्षण प्रायः पत्तियों, नए प्ररोहों पर अधिक प्रतीत होते है. पत्तियों की निचली सतह पर जगह-जगह कवक की मृदुरोमिल वृध्दि दिखाई देती है. तथा इन्ही धब्बों की जगह पर पत्तियों की ऊपरी सतह पर हल्के पीलें धब्बे दिखाई देते है. इन्ही धब्बों की जगह पर बाद में ऊतक क्षय के कारण धब्बे बनते है. ऐसे कई धब्बे आपस में मिलने से मुख्य शिरा के संलग्न ऊतक मर जाते है. रोग ग्रस्त प्ररोह छोटे तथा अति वृध्दि के कारण मोटे हो जाते है. तथा नए प्ररोह कवक की वृध्दि से ढक जाते है. पुष्प तथा कच्चे फल भी संक्रमित हो सकते है. ऐसी अवस्था में फल का पूरा गुच्छा ही संक्रमित हो जाता है. अथवा कभी-कभी गुच्छे का एक भाग ही प्रभावित होता है.
रोग की रोकथाम
इस रोग की रोकथाम निम्न प्रकार से की जा सकती है-
- रोगग्रसित फसल के जमीन पर पड़े सभी अवशेषों को एकत्रित करके नष्ट कर दिया जाय.
- लताओं को जमीन की सतह से ऊपर रखा जाय.
- सही समय पर सही छंटाई की जाय.
- यथा संभव रोग प्रति रोधी प्रजातियां अपनाई जाय.
- द्वितीय संक्रमण के प्रसार को रोकने हेतु मैंकोजेब या जिनेब की 2.0 ग्रा० या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड जैसे ब्लाइटोक्स 5.0 की 3.0 ग्रा० प्रति लीटर पानी का घोल या बोर्डो मिश्रण (4:4:50) का छिड़काव निम्न प्रकार करना चाहिए.
(क) छंटाई के तुरंत बाद
(ख) छंटाई के तीन से चार सप्ताह बाद
(ग) कलियों के खिलने से पहले
(घ) फलों के गुच्छे बनने के बाद
(ड़) टहनियों की वृध्दि के समय
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चूर्णिल आसिता (Powdery mildew)
अंगूर की यह एक प्रमुख बीमारी है. भारत में इस रोग का उल्लेख सर्वप्रथम सन 1905 में बटलर द्वारा किया गया.
रोग के कारक
यह रोग अनसिन्यूला नेक्टर नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है.
रोग की पहचान
रोग के लक्षण पौधे के सभी वायनीय भागों पर देखा जा सकता है. परन्तु पत्तियों पर लक्षण अधिक स्पष्ट दिखाई देते है. पत्तियों पर पहले सफ़ेद चूर्ण सा फैला हुआ दिखाई देता है. जो धीरे-धीरे पूरी पत्ती को ढक लेता है. रोग ग्रस्त भाग का रंग पहले भूरा और बाद में काला हो जाता है. पुष्प गुच्छ प्रभावित होने पर कुछ समय पश्चात् मुरझाकर गिर जाता है. तनों पर सीमित दाग बनते है.
रोग की रोकथाम
इस रोग की रोकथाम के लिए निम्न उपाय करना चाहिए-
- लताओं के बीच उचित वायु संचार की व्यवस्था बनायी जाय.
- फसल पर रोग के लक्षण दिखते ही घुलनशील गंधक युक्त फफूंदनाशी जैसे सल्फेक्स की 3.0 ग्रा० मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 8 से 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए.
पर्ण चित्ती (Leaf spot)
यह रोग अंगूर उगाये जाने सभी क्षेत्रों में पाया जाता है तथा इससे भारी आर्थिक क्षति होती है.
रोग के कारक
यह सर्कोस्पोरा विटिकोला नामक कवक द्वारा उत्पन्न होने वाला रोग है.
रोग की पहचान
पत्तियां गोलाकार या अनियमित आकार के गहरे भूरे या कत्थई रंग के धब्बे बनते है. जिनका बीच का भाग राख के रंग का होता है. धब्बों की संख्या अधिक होने के कारण प्रकाश संशलेषण प्रभावित होता है. जिससे उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है. जिससे उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.
रोग की रोकथाम
इसकी रोकथाम के लिए निम्न उपाय करना चाहिए-
- रोग ग्रसित पत्तियों को इकट्ठा करके जला देना चाहिए.
- रोग के लक्षण दिखाई देने पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 3.0 ग्राम या जिनेब की 2.5 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी की दर से घोलकर 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए.
काला विगलन (Black rot)
इस रोग का उल्लेख सर्वप्रथम सन 1850 में संयुक्त राज्य अमेरिका में हुआ था. भारत वर्ष में इसका वर्णन सन 1932 में लूथरा ने किया. रोग की तीव्र अवस्था में पूरी फसल के नष्ट होने की संभावना रहती है.
रोग के कारक
यह रोग ग्युजनैरेडिया विडवेली नामक कवक द्वारा उत्पन्न होने वाला रोग है.
रोग की पहचान
यह रोग प्रायः लताओं के वृध्दि काल में सर्वप्रथम लाल रंग के गोलकार ऊतक क्षयी धब्बों के रूप में प्रकट होता है. इस प्रकार के धब्बे प्रायः पत्ती के पतले भाग पर शिराओं के मध्य होते है. ये धब्बे प्रायः बिखरे हुए या कभी-कभी धने रूप में दिखाई पड़ते है. इन धब्बों का आकार बढ़ने पर इनका किनारा काली धारी के समान हो जाता है. और शेष भाग भूरा होता है. प्ररोह पर धब्बे बैंगनी से काले रंग के कभी-कभी धसे हुए दीर्घ वृत्ताकार या लम्बे होते है. रोग ग्रसित तनों तथा प्ररोहों पर विछतग्रस्त छल फट जाती है.
साधारणतया फलों पर उनके आधे विकास के बाद लक्षण दिखाई देते है. फलों पर 1 से 2 सेमी० व्यास के धब्बे प्रकट होते है. जिनके परिधियर एक भूरी मेखला बन जाती है. जो तेजी से चौड़ी होने लगती है. शीघ्र ही पूरा फल आक्रान्त हो जाता है. और शीघ्र ही सिकुड़ जाता है. रोगी फल कवक जाल से ढक जाते है. विगलन की वृध्दि के साथ-साथ पूरे फल का रंग भी काला पड़ जाता है.
रोग की रोकथाम
इस रोग की रोकथाम के लिए निम्न उपाय करना चाहिए-
- प्रतिवर्ष लताओं की सही समय पर व सही तरह से छंटाई करनी चाहिए.
- बसंत ऋतु में भूमि की जुताई करनी चाहिए.
- लताओं को धरातल से काफी उंचाई पर रखा जाय और आस-पास खरपतवार न उगने दिया जाय.
- मृदुरोमिल असिता की तरह ही कवकनाशी रसायनों का छिड़काव किया जाय.
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श्याम व्रण (Anthrac nose)
अंगूर के प्रमुख रोगों में यह भी एक प्रमुख रोग है. यह रोग सर्वप्रथम सन 1839 में फ़्रांस में पाया गया था. फलों पर बहुसंख्यक धब्बों के कारण उपज में 50 प्रतिशत से अधिक तक की कमी आ जाती है.
रोग के कारक
इस रोग का संक्रमण अंगूर के किसी भी लता के हरे भाग पर हो सकता है. पत्तियों पर छोटे अनियमित आकार के गहरे भूरे धब्बे बनते है. बाद में इन धब्बों के बीच का भाग धूसर तथा किनारे भूरे रंग के हो जाते है. अंत में धब्बों का केन्द्रीय भाग गिर जाता है. रोग के अधिक स्पष्ट लक्षण प्ररोहों तथा प्रतानों पर मिलते है. इन पर हलके भूरे रंग के विखरे हुए छोटे-छोटे गोलाकार धब्बे बनते है. जिनके किनारे के ऊतक थोड़े उठे हुए और गहरे रंग के होते है.
गंभीर रूप से संक्रमित प्ररोहो की वृध्दि रुक जाती है. तथा पत्तियां छोटी-छोटी व हल्के रंग की हो जाती है. फलों पर यह रोग गहरे लाल रंग के धब्बों के रूप में शुरू होता है. एक ही धब्बे द्वारा फल का आधा भाग घिर जाता है. फलों का कड़ा बना रहता है. और आंतरिक ऊतक मुलायम नही होते. प्रतानों और पर्णवृन्तों की भाँति ही फल वृंत पर विछत पाए जाते है.
रोग की रोकथाम
इस रोग की रोकथाम के लिए निम्न उपाय करना चाहिए-
- रोग प्रतिरोधी प्रजाति जैसे बंगलौर बलू का चयन किया जाय.
- अच्छी तरह से लताओं की छंटाई की जाय.
- मृदुरोमिल असिता की तरह ही कवकनाशी रसायनों का छिड़काव किया जाय.
निष्कर्ष
किसान भाईयों उम्मीद है गाँव किसान (Gaon Kisan) के इस लेख से अंगूर के प्रमुख रोग के बारे में पूरी जानकारी मिल पायी होगी. फिर भी अंगूर के रोगों से सम्बंधित आपका कोई प्रश्न हो तो कमेन्ट बॉक्स में कमेन्ट कर पूछ सकते है. इसके अलावा यह लेख आपको कैसा लगा कमेन्ट कर जरुर बताएं, महान कृपा होगी.
आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद, जय हिन्द.