केले के प्रमुख रोग : जानिए प्रमुख लक्षण और बचाव

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केले के प्रमुख रोग
केले के प्रमुख रोग : जानिए प्रमुख लक्षण और बचाव

केले के प्रमुख रोग : जानिए प्रमुख लक्षण और बचाव

नमस्कार किसान भाईयों, भारत में केले की खेती प्रमुख रूप से की जाती है. लेकिन केले के प्रमुख रोग के कारन इसकी उपज को काफी हानि पहुंचती है. जिससे किसान भाईयों को इसकी खेती में काफी घाटा होता है. इसलिए गाँव किसान (Gaon Kisan) आज अपने इस लेख में केले के प्रमुख रोगों के बारे में पूरी जानकारी देगा. जिससे किसान भाई केले की अच्छी उपज प्राप्त कर सके. तो आइये जानते है केले के प्रमुख रोगों के बारे में –

फ्यूजेरियम म्लानि या पनामा रोग (Fusarium wilt or Panama disease)

यह रोग केले में लगने वाले रोगों में प्रमुख है. साथ ही यह रोग विश्व में केला उगाने वाले सभी देशों में पाया जाता है. भारत में पनामा रोग मुख्य रूप से उत्तरी, पूर्वी तथा दक्षिणी सभी राज्यों में पाया जाता है.

रोग के लक्षण 

केले का यह रोग पौधे के विकास काल में कभी भी लग सकता है. इस रोप्ग के लक्षण दो प्रकार के होते है. केले की कुछ प्रजातियों में नई पत्तियों में पीलेपन के रूप में तथा कुछ प्रजातियों में पत्तियां पर्णवृन्तों के टूटने से लटक जाती है. रोग के प्राथमिक लक्षण के रूप में पुरानी पत्तियों पर पहले हल्के पीले रंग की धारियां बनती है. फिर पूरी पत्ती पीली पड़ जाती है. और पर्णवृंत से टूटकर लटक जाती है. तथा बाद में सूख जाती है. रोग का विशिष्ट लक्षण ऊतकों में दिखाई देता है. प्रभावित भागों को काटकर देखने पर वैसकुलर ऊतकों का रंग गहरा भूरा या हल्का पीला दिखाई देता है. इसी तरह का रंग प्रकन्द (Rhizone) में भी दिखाई पड़ता है. ऐसे प्रकन्द बाद में काले पड़कर सड़ जाते है.

रोग लगने के एक से डेढ़ महीने के अंदर ही सभी पत्तियां नष्ट हो जाती है. केवल मूल तना खड़ा रहता है. रोगी पौधे के पर्णवृंत तथा तनों से सड़ी मछली की तरह दुर्गन्ध आती है.

रोग के कारक 

यह फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम उपजाति क्यूबेंस नामक कवक से लगने वाला रोग है.

रोग की रोकथाम

इसकी रोकथाम निम्न उपाय करना चाहिए-

  • पौध रोपण हल्की भूमि में न किया जाय.
  • उदासीन या क्षारीय मृदा को प्राथमिकता दी जाय.
  • रोपण हेतु स्वस्थ पुतियों का प्रयोग किया जाय.
  • यूरिया डालकर ईख (गन्ना) की पत्तियों से ढकना भी लाभप्रद है.
  • रोगग्रसित पौधे को खरपतवार नाशी डालकर नष्ट कर दिया जाय, तत्पश्चात सावधानीपूर्वक गड्ढे से निकालकर गड्ढे में चूना डालकर छोड़ दिया जाय.
  • नए सकर्स (पुतियों) को लगने से पूर्व ट्राईकोडर्मा युक्त 15 से 20 किग्रा० गोबर की खाद प्रति गड्ढे में डाला जाय.

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पर्ण चित्ती या सिमाटोका रोग (Leaf spot or sigatoba sisease) 

विश्व में सर्व प्रथम यह रोग जावा में सन 1902 में पाया गया. फीजी द्वीप के सिगाटोका के मैदानी क्षेत्रों में सन 1913 यह व्यापक रूप से लगा था जिसके कारण ही इसे सिगाटोका रोग भी कहा जाता है.

रोग के लक्षण  

इस रोग में पत्तियों का अधिकांश भाग पूरी तरह से झुलस जाता है. फलों के पुंज का आकार छोटा एवं स्वाद में परिवर्तन हो जाता है. सर्वप्रथम ऊपर की तीसरी या चौथी पत्ती में हल्की पीली या हरे रंग की धारियां बनती है. जोकि 1-10 मिमी० लम्बी और पर्ण शिराओं के समान्तर होती है. बाद में इन धारियों का आकार चौड़ाई में बढकर दीर्घवृत्ताकार धब्बे का रूप ले लेता है. जिनके बीच का भाग हल्के धूसर तथा किनारा काले रंग का हो जाता है. रोगी पत्तियां धब्बे के बढ़ने के कारण झुलस जाती है. रोग की तीव्रता की दशा में मध्यशिरा और पर्णवृंत सड़ जाते है. फलों पर रोग का प्रभाव पर्ण चित्तियों के धब्बों के अनुपात में पड़ता है.

रोग के कारक   

यह सर्कोस्पोरा म्यूसी कवक द्वारा लगने वाला रोग है.

रोग की रोकथाम 

इस रोग की रोकथाम निम्न प्रकार से करनी चाहिए-

  • बाग़ की साफ़ सफाई पर विशेष ध्यान देना चाहिए.
  • पौध संगरोधिता (Plant quramtive) पर विशेष ध्यान दिया जाय.
  • रोग के प्राथमिक लक्षण की अवस्था में मैनेब 2.5 किग्रा० ट्राइटन या अन्य कोई चिपकाने वाला पदार्थ 3.0 किग्रा० तथा 3.0 लीटर पेट्रोलियम तेल के मिश्रण का जलीय घोल बनाकर छिड़काव करने से रोकथाम की जा सकती है.

श्याम व्रण या फल विगलन (Anthranenose or Fruits rot)

केले का यह एक प्रमुख रोग है. इस रोग के लग जाने से उत्पादन तथा फलों की गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.

रोग के लक्षण 

केले के इस रोग के लक्षण दो प्रकार से प्रकट होते है. पहले कच्चे फूल पर संक्रमण होने से जोकि फलों के भण्डारण के समय संक्रमण से होता है. और फलों में हानि का प्रमुख कारण है.

पहले प्रकार का संक्रमण जिसे गुप्त संक्रमण कहा जाता है का आभास फूल तथा छाल पर बने काले बिन्दुओ द्वारा होता है. संक्रमित फल जब पकने लगते है. तब कवक वृध्दि होती है. तथा बिन्दुनुमा रचना बड़े-बड़े काले चकत्ते का रूप ले लेती है. और फलों में सड़न पैदा होने लगती है. भंडारण काल का संक्रमण फलों की छाल पर लगी खरोचों के कारण होता है. जिससे फल सड़ने लगता है.

रोग के कारण 

यह रोग ग्लोओरस्पोरियम तथा कोलेटोट्राइकम नामक कवक की प्रजातियों द्वारा उत्पन्न होने वाला रोग है.

रोग की रोकथाम 

इस रोग की रोकथाम निम्न प्रकार से करनी चाहिए-

  • फलों का गुच्छा पूरी तरह खुल जाने के बाद आगे का फूलों वाला भाग काटकर नष्ट कर दिया जाय.
  • परिवहन के समय फलों की क्षति से बचाया जा सकता है.
  • भण्डारण उचित तापक्रम पर किया जाय.
  • संक्रमण की आशंका होने पर सर्वांगी फफूंद नाशी रसायन जैसे- कार्बेन्डाजिम या बनेलेट की 1.0 ग्राम या थायोफ़िनेअ मिथाइल की 1.5 ग्राम या जिनेब की 2.0 ग्राम की मात्रा को प्रति लीटर पानी की दर से घोलकर गुहा व भण्डारगत फल विगलन को कम किया जा सकता है.

जीवाणु म्लानि या मोको रोग (Bacterial wilt or Mobo disease)

केले के इस प्रमुख रोग का वर्णन सर्वप्रथम सन 1840 में ब्रिटिश धाना से किया गया था. सर्वप्रथम मोको प्लैटेन पर पाए जाने के कारण ही इसे मोको रोग भी कहा जाता है.

रोग के लक्षण 

सर्वप्रथम रोगी पौधे की नयी पत्तियों का पर्णवृंत पीला पड़ने लगता है. और बाद में टूट जाता है. जिसके कारण बीच की पत्ती सूख जाती है. आगे चल कर अन्य पत्तियां भी मुरझाकर लटक जाती है और सूख जाती है. रोग ग्रसित पौधों के तनों को यदि काटकर देखा जाय तो सवंहन ऊतक हल्के पीले गहरे भूरे या काले नीले रंग के दिखते है. रोगी भाग से मटमैले धूसर या गहरे भूरे रंग का अवपंकी स्राव (ऊज) निकलता है.

रोग के कारक  

यह रोग सूडोमोनास सोलेनोसिएरम नामक जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है.

रोग की रोकथाम 

इसकी रोकथाम हेतु निम्न उपाय करने चाहिए-

  • बाग़ में जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए.
  • भूमि की ग्रीष्म कालीन जुताई चार से पांच बार करनी चाहिये.
  • कम से कम दो वर्ष तक भूमि को केले की फसल से मुक्त रखा जाय.
  • रोग ग्रसित पौधों को निकालकर नष्ट कर देना चाहिए.
  • नर अक्ष की कली को गुच्छा पकने से पहले ही काट दिया जाय.
  • रोगरोधी प्रजातियाँ का चयन किया जाय.

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गुच्छ शीर्ष रोग (Bunchy top disease)

भारतवर्ष में केले के रोगों में यह एक प्रमुख रोग है. तथा भारत में सर्वप्रथम सन 1925 में बंगाल में यह पाया गया था. इस समय इस रोग के कारण दक्षिणी राज्यों में बहुत नुकसान होता है.

रोग के लक्षण 

इस रोग के लक्षण फसल विकास की किसी भी अवस्था पर लग सकता है. सर्वांगी संक्रमण होने पर शीर्ष की पत्तियां गुच्छेनुमा दिखाई देती है. नए व रोगी पौधों की अपेक्षा सीधी दिखाई देती है. रोगी पौधों में दो प्रकार का लक्षण दिखता है. गुच्छ शीर्ष का प्रथम लक्षण पत्तियों पर वामनता, सीमांत हरिमाहीनता तथा कुंचन के लक्षण के रूप में लक्षण के रूप में प्रकट होता है. फल गुच्छ के तने में अवरोध होने के साथ तना फट जाता है. गुच्छो की वृध्दि रुक जाती है. रोग की बढ़ी हुई अवस्था में जड़ों में विगलन हो जाता है. जोकि कमजोर जड़ों पर अनेक जीवाणुओं तथा कवकों के संक्रमण से होता है.

रोग के कारक 

यह रोग केला वायरस-1 द्वारा उत्पन्न माना जाता है. इसका संवाहन एफिड द्वारा होता है.

रोग की रोकथाम 

इस रोग की रोकथाम निम्न प्रकार की जा सकती है-

  • रोग ग्रसित पौधा दिखाते ही उसे नष्ट कर दिया जाय.
  • रोगी पौधों के चारों तरफ पौधे विहीन चौड़ी पट्टी छोड़ी जाय.
  • रोग फैलने बचाने हेतु कीटनाशी का छिड़काव किया जाय.
  • रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन किया जाय.
  • पौध संगरोधिता के नियमों का पालन किया जाय.

निष्कर्ष 

किसान भाईयों उमीद है गाँव किसान (Gaon Kisan) के इस लेख से केले के प्रमुख रोग के बारे में पूरी जानकरी मिल पायी होगी. फिर भी इस लेख सम्बंधित आपका कोई प्रश्न हो तो कमेन्ट बॉक्स में कमेन्ट कर पूछ सकते है. इसके अलावा यह लेख आपको कैसा लगा कमेन्ट कर जरुर बताएं महान कृपा होगी.

आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, जय हिन्द.

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