लाही की खेती कब की जाती है? उत्तर प्रदेश के किसान कैसे करे वैज्ञानिक विधि से लाही (तोरिया) की खेती 

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When is Lahi cultivated
लाही की वैज्ञानिक खेती कैसे करें?

लाही की वैज्ञानिक खेती कैसे करें?

देश में लाही की खेती तिलहन की फसल के रूप में की जाती है. उसको तोरिया के नाम से भी जाना जाता है. लाही के बीच में 40 से 45% तक तेल की मात्रा पाई जाती है.

किसान भाई लाही की खेती खरीफ और रबी की फसल के बीच कैंच फसल के रूप में ले सकते हैं .इसकी खेती देश में अधिकतर उत्तर प्रदेश राज्य में की जाती है. क्योंकि बाढ़ आने की वजह से वहां खरीफ की फसल नहीं हो पाती है. जिस कारण किसान भाई लाही को उगाकर उसकी भरपाई कर लेते हैं. इसकी फसल को बारिश समाप्त होने के तुरंत बाद उगाया जा सकता है.

आज की इस लेख में आप सभी को लाही की खेती कैसे और कब करें ? इसकी पूरी जानकारी दी जाएगी. जिससे किसान भाई लाही की खेती करके अच्छा मुनाफा कमा सकें. तो आइए जानते हैं, लाही की खेती वैज्ञानिक विधि से कैसे करें-

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लाही के लिए उपयुक्त भूमि

लाही की खेती के लिए सबसे उपयुक्त भूमि हल्की रेतीली दोमट मिट्टी होती है. इसके अलावा भी किसान भाई इसको अन्य भूमि में भी उगा सकते हैं. भूमि से जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए.

इसके अलावा भूमि क्षारीय एवं लवणीय नहीं होनी चाहिए. इसकी खेती के लिए भूमि का पी०एच० मान लगभग 7 के आस-पास का होना सबसे अच्छा माना जाता है.

लाही के लिए उचित तापमान एवं जलवायु

लाही की खेती के लिए शुष्क और आर्द्र जलवायु सबसे उपयुक्त मानी जाती है. किसान भाई इसकी खेती ऐसे मौसम में करें, जब ना तो अधिक सर्दी हो, ना ही अधिक गर्मी, क्योंकि अधिकता होने पर इसका प्रभाव फसल की उपज पर पड़ेगा.

इसके अलावा इसके पौधे को अधिक बारिश की भी जरूरत नहीं होती है, इसके पौधे को अंकुरित होने और विकास करने के लिए सामान्य तापमान की आवश्यकता पड़ती है, लेकिन इसके पौधे अधिकतम 35 डिग्री का तापमान सहन करने की क्षमता रखते हैं.

लाही की उन्नत किस्में

देश में अलग-अलग राज्यों में कई तरह की लाही की उन्नत किस्में उगाई जाती हैं जिनसे किसान भाई अच्छा लाभ लेते हैं तो आइए जानते हैं लाही की उन्नत किस्म के बारे में-

संगम- लाही की यह उन्नत किस्म बुवाई के 112 दिन बाद पककर तैयार हो जाती है.इस किस्म का उत्पादन लगभग 6 कुंतल प्रति एकड़ तक होता है.नहीं की इस किस्म के बीजों में 44 प्रतिशत तक की तेल मात्रा पायी जाती है.

टी एच-68 – लाही की यह किस्म जल्दी पकने वाली होती है. इसकी बुवाई के बाद 80 से 90 दिन में पककर उपज तैयार हो जाती है.  इस किस्म की पैदावार 12 से 15 कुंटल प्रति हेक्टेयर तक होती है. इस किस्म को गेहूं की फसल लेने हेतु जल्दी उगाया जाता है.

पीटी-30 – लाही की इस किस्म को तराई वाले मैदानी क्षेत्रों के लिए तैयार किया जाता है.इस किस्म के पौधे बीज रोपाई के लगभग 90 दिन बाद कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं.जिनका प्रति हेक्टेयर उत्पादन 15 कुंटल के आसपास होता है इस किस्म के बीजों में तेल की मात्रा करीब 42% तक पाई जाती है.

भवानी-  लाही की ये सबसे पहले पैदावार देने वाली किस्में है. इस किस्म के बीज रोपाई के लगभग 70 से 80 दिन बाद पत्थर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म का प्रति हेक्टेयर उत्पादन 10 से 12 कुंटल तक होता है.

तपेश्वरी-  लाही की इस किस्म के पौधे लगभग 80 से 90 दिन में पक कर तैयार हो जाते हैं. इस किस्म का प्रत्येक तेल उत्पादन लगभग 15 कुंटल के आसपास पाया जाता है. इस किस्म के बीजों में तेल की मात्रा 40 से 42% तक पाई जाती है.

लाही के लिए खेत की तैयारी

लाही की खेती के लिए शुरुआत में खेत की गहरी जुताई कर उसे खुला छोड़ दें. उसके कुछ दिन बाद उसमें उचित मात्रा में गोबर की खाद डालकर खेत की दो से तीन तिरछी जुताई कर खाद को मिट्टी में मिला दें. उसके बाद खेत में पानी छोड़ कर उसका पलेव कर ले. पलेव करने के तीन से चार दिन बाद खेत में रासायनिक उर्वरक की उचित मात्रा का छिड़काव कर रोटावेटर चला दे. उसके बाद खेत में पाटा चला कर उसे समतल बना ले.

बीज की कैसे करें रोपाई और उचित समय

लाही की खेती में बीज की रोपाई ड्रिल या छिड़काव से की जाती है. ड्रिल विधि में इसके बीजों की रोपाई समतल भूमि में की जाती है. ड्रिल के माध्यम से इसके बीजों की रोपाई सरसों की तरह पंक्तियों में की जाती है. पंक्तियों में इसके बीजों की रोपाई करते समय बीजों की बीच 10 से 15 सेंटीमीटर दूरी होनी चाहिए. जबकि पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1 फीट के आसपास होनी चाहिए. इसके अलावा कुछ किसान भाई इसकी रोपाई छिड़काव विधि से भी करते हैं. जिसमें किसान भाई समतल खेत में इसके बीजों को छिड़क देते हैं. उसके बाद कल्टीवेटर के माध्यम से खेत की दो हल्की जुताई कर देते हैं. जिससे बीज मिट्टी में अच्छे से मिल जाता है. दोनों विधि से रोपाई के दौरान बीच को जमीन में 3 से 4 सेंटीमीटर नीचे उगाया जाना चाहिए. इससे बीजों का अंकुरण अच्छे से होता है. लाही के बीज को खेत में अगस्त माह के आखिरी सप्ताह और सितंबर माह तक उगा देना चाहिए. एक हेक्टेयर में ड्रिल के माध्यम से रोपाई करने के लिए 4 किलो बीच काफी होता है. जबकि छिड़काव विधि के लिए 5 से 6 किलो बीज की जरूरत होती है.

पौधों की सिंचाई कैसे करें

लाही के पौधों की सिंचाई की ज्यादा जरूरत नहीं होती है. क्योंकि इसकी रोपाई बारिश के मौसम के बाद की जाती है. जिस कारण खेत में नमी की मात्रा अधिक समय तक बनी रहती है. इसके पौधों को पानी की जरूरत फूल खिलने के दौरान होती है. जब पौधों पर फूल खिलने का समय आए उस दौरान इसके पौधों को सिंचाई कर देनी चाहिए. और उसके बाद दूसरी सिंचाई फलियों में बीज बनने के दौरान करनी चाहिए.

उर्वरक की मात्रा कितनी रखें

लाही की खेती के लिए शुरुआत में दस गाड़ी पुरानी गोबर की खाद को खेत की जुताई के समय प्रति हेक्टेयर के हिसाब से खेत में डालकर मिट्टी में अच्छी तरह से मिला दे. इसके अलावा रासायनिक खाद के रूप में एक बोरा एन०पी०के० की मात्रा को खेत की आखिरी जुताई के वक्त छिड़क देना चाहिए. और जब पौधों पर फूल खिले तो 25 किलो यूरिया सिंचाई के साथ देना उत्पादन को अच्छा कर देती है.

खरपतवार नियंत्रण कैसे करें

लाही की खेती में खरपतवार नियंत्रण पौधों की निराई-गुड़ाई करके किया जाता है. इसके लिए पौधों की दो बार निराई-गुड़ाई कर देनी चाहिए. इसके पौधों की पहली गुणाई बीच रोपाई के 25 दिन बाद कर देनी चाहिए और दूसरी गुड़ाई पहली गुड़ाई के 20 दिन बाद करनी चाहिए. इसके अलावा रासायनिक तरीके से खरपतवार नियंत्रण के लिए बीज रोपाई के तुरंत बाद पेंडीमैथलीन की उचित मात्रा का छिड़काव करना चाहिए.

लाही में लगने वाले प्रमुख कीटो का नियंत्रण

लाही की खेती में कई तरह के कीट देखने को मिलते हैं. जिनकी समय रहते रोकथाम ना की जाए तो पैदावार काफी कम मिलती है..

कातरा-  कातरा को बालदार सूडी के नाम से भी जानते हैं. इस रोग की सुंडी लाल, पीली, हरी और चितकबरी होती है. जिससे शरीर पर रोए भी पाए जाते हैं. इस रोग के कीट पौधे के सभी कोमल भागों को खाकर पौधे को नुकसान पहुंचा देते हैं. इस कीट की रोकथाम के लिए पौधों पर सर्फ़ के घोल का छिड़काव करना चाहिए. इसके अलावा मैलाथियान या क्यूनालफ़ॉस की उचित मात्रा का छिड़काव करने से लाभ मिलता है.

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माहू कीट-  माहू को चेंपा के नाम से भी जाना जाता है. यह कीट बहुत छोटे होते हैं. जिनका रंग हरा और लाल पीला होता है. यह कीट पौधों पर समूह में दिखाई देते हैं. जो पौधे का रस चूस कर पौधे के विकास को रोक देते हैं. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मोनोकोटोफ़ॉस या एजाडिरेक्टिन की उचित मात्रा का छिड़काव करना चाहिए.

सफेद गेरूई- इस कीट लगने पर पौधों की पत्तियों की निचली सतह पर सफेद रंग के धब्बे बन जाते हैं. जिसके कारण पत्तियां पीली पड़कर सूखने लगती है. इस वजह से पौधे का शीर्ष भाग विकृत हो जाता है. जिससे पौधों फलिया नहीं बनती. जिसका असर पौधे की पैदावार पर पड़ता है. इस रोग की रोकथाम के लिए पौधों पर मेटालेक्सिल का छिड़काव करना चाहिए. और बीज की रोपाई के वक्त उसे मेटालेक्सिल से ही उचारित करना अच्छा होता है.

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