जई की घास उगाने में कितना समय लगता है? सर्दियों में पशुओं की एक महत्वपूर्ण चारा फसल है

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Oats are an important fodder crop
जई सर्दियों में पशुओं के एक महत्वपूर्ण चारा फसल

जई सर्दियों में पशुओं के एक महत्वपूर्ण चारा फसल

सर्दियों में घासदार चारे में जई सबसे महत्वपूर्ण फसल है. इसके चारे में औसतन 10 से 12% तक अप परिष्कृत प्रोटीन पाया जाता है. जेई का चारा बरसीम या रिजका के चारे के साथ मिलाकर खिलाया जाता है.

जई के चारे में प्रचुर मात्रा में कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है. इसमें शुष्क पदार्थ लगभग 25 से 30% तक पाया जाता है .

जई हे या साइलेज बनाने के लिए सर्दियों की सबसे अच्छी चारे की फसल है.

जई की उत्पत्ति एवं क्षेत्र

जई की खेती गेहूं  या जौ की खेती के बाद आरंभ हुई है पहले जई  अनाज वाली फसलों में खरपतवार के रूप में उगती थी. बाद में इसकी खेती होनी प्रारंभ हुई.

जौ के साथ खरपतवार के रूप में पाए जाने और आकार में कुछ-कुछ मिलने से इसे जई कहा जाने लगा.

डे कंडाले के अनुसार प्राचीन काल में मिस्र के लोग जई  उगाते थे. ग्रीस के लोग इसे ब्रोमस जीनस कहते थे. लेकिन कुछ कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार इसकी उत्पत्ति स्थान एशिया माइनर माना गया है.

चारे के रूप में जई की खेती  कई देशों जैसे भारत,पाकिस्तान, संयुक्त राज्य अमेरिका, अफ्रीका, तथा यूरोपीय देशों में की जाती है.

भारत में जई की खेती उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, बिहार, राजस्थान के कुछ भागों में, गुजरात, महाराष्ट्र के भागों में, आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के कुछ भागों में उगाई जाती है.

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जेई का वानस्पतिक विवरण

जेई का वानस्पतिक नाम अवीना सैटाइवा (Avena sativa) है. यह घास कुल का 1 वर्षीय पौधा है. जिसके तने में बहुत सी गांठ तथा पोरिया होती हैं. और जड़े झकड़ा तथा महीन होती हैं.

जलवायु एवं भूमि

जई सिंचित स्थानों में उगाई जाने वाली चारे की एक फसल है. यह पाले और अधिक ठंड को सहन कर सकती हैं. परंतु अधिक समय तक पानी की कमी से वृद्धि और उपज कम हो जाती हैं.

इसकी खेती सामान्यतः  21 से 24 सेंटीग्रेड तक के तापमान तक वाले क्षेत्रों में की जा सकती है. दक्षिण भारत में जई का चारा फरवरी के पश्चात बोया जाता है.

इसकी फसल अच्छी प्रकार हो सके इसके लिए बलुई दोमट मिट्टी से लेकर मटियार दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त होती है.

जई के लिए फसल-चक्र

जई की खेती के लिए सरसों या बरसीम के साथ मिलाकर की जा सकती है.  जिससे चारे की पौष्टिकता और उपज बढ़ जाती हैं.

सरसों के साथ मिलाने का सबसे अच्छा ढंग यह है  कि  जई की बुवाई के पश्चात सरसों को 7 से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज दर से 30 सेमी की दूरी पर लाइनों में सीड ड्रिल की सहायता से बो देना चाहिए.

बरसीम के साथ जई की बुवाई एकांतर लाइनों में करते हैं. इसके अलावा दोनों के  बीजों को एक अनुपात एक में मिलाकर छिड़काव से की जाती है. इसमें जई का चारा तीन कटाई तक लिया जा सकता है.

जई का फसल चक्र इस प्रकार है – 

  • ज्वार – जई – मक्का (एक वर्षीय)
  • मक्का – जई – मक्का (एक वर्षीय)
  • सूडान घास – जई – मक्का + लोबिया (एक वर्षीय)
  • लोबिया – जई + सरसों – मक्का + लोबिया (एक वर्षीय)
  • ज्वार + लोबिया – जई + रिजका (एक वर्षीय)

दाने वाली फसलों के साथ चारे के लिए जई उगाने पर निम्न फसल – चक्र अपनाने चाहिए –

  • मक्का – जई – लोबिया (एक वर्षीय)
  • ज्वार – जई – मक्का – लोबिया (एक वर्षीय)
  • मक्का – जई – मूंग (एक वर्षीय)

जई की उन्नत किस्में 

जई की दो प्रकार की कुछ लंबी तैयार होने वाली अगेती किस्में तथा कुछ देर में पकने वाली पछेती किस्में पाई जाती हैं. जल्दी तैयार होने वाली किस्मों में वेस्टन-11 (122 दिन में) आई जी एफ आर आई 2672 और 2681 दोनों 89 दिन में मुख्य हैं.

चारे के लिए यह  पुष्पावस्था में काटी जाती हैं. देर से तैयार होने वाली मौसम की मुख्य जातियां  बंकर-10, फ्लेमिंग गोल्ड, क्रेसेज-आफ्टर-ली, ऑर्बिट, कोचमैन, रैपिडा तथा इंडियो हैं. केंट जाति से अधिक उपज देने वाली और अच्छी कोई दूसरी भी किस्म अभी तक नहीं पाई गई है.

खेत की तैयारी

जई की अच्छी पैदावार के लिए दोमट मिट्टी वाला खेत सबसे अच्छा माना जाता है. इसकी खेती बलुई मिट्टी से लेकर मटियार मिट्टी में भी की जा सकती है. परंतु बलुई मिट्टी में खेती करना कठिन होता है.भूमि में जल निकास तथा सिंचाई दोनों का उचित प्रबंध होना चाहिए.

जई की फसल क्षारीय भूमि में भी उगाई जा सकती हैं. अधिक क्षारीय भूमि में इसके बीज अंकुरित नहीं होते हैं.

बुवाई से पहले खेत को अच्छी तरह तैयार कर लेना चाहिए. इसके लिए एक जुताई तथा तीन-चार बार हैरो की जुताई करनी चाहिए.

खेत की तैयारी फसल-चक्र में दूसरी फसलों के ऊपर निर्भर करती है. यदि मक्का या ज्वार के बाद जई उगाना हो तो बुवाई के पहले खेत की तैयारी के समय पिछली फसलों के ठूंठों एवं जड़ों को निकालना आवश्यक होता है. क्योंकि खेतों में इनके सड़ने-गलने में पर्याप्त समय लगता है.

जई की बुवाई

देश में जई की खेती मुख्य रूप से रबी के मौसम में चारे के लिए की जाती है. इसकी बुवाई अक्टूबर से लेकर जनवरी के प्रारंभ तक कभी की जा सकती है.

इसकी अच्छी उपज के लिए बुवाई का उचित समय अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक माना जाता है दिसंबर के द्वितीय सप्ताह के बाद बुवाई करने से उपज कम हो जाती है.

जई की बुवाई के लिए सीड ड्रिल का प्रयोग करना चाहिए. इसकी बुवाई करते समय  लाइन से लाइन की दूरी 22 से 25 सेमी रखनी चाहिए. सीड ड्रिल से बुवाई करने पर बीज एक गहराई में पड़ते हैं.

जई की बुवाई छिटकावां विधि से भी कर सकते है. इसमें बीज की दर थोड़ी अधिक रखनी पड़ती है. क्योंकि इस विधि में कम से कम 10 से 15% बीज जमीन के ऊपर रह जाते हैं.

यदि जई  का बीज का अंकुरण प्रतिशत पचासी से पंचानवे हो तो एक हेक्टेयर के लिए 80 से 100 किलोग्राम बीज पर्याप्त होता है.

खाद एवं उर्वरक

जई की अच्छी बढ़वार के लिए नाइट्रोजन फास्फोरस पोटाश तथा दूसरे पोषक तत्व की आवश्यकता होती है.  नाइट्रोजन जई की वनस्पतिक वृद्धि के लिए सहायक होता है.

जई के लिए 80 से 120 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता पड़ती है.इससे पौधों में हरापन और रसीलापन बढ़ जाता है.

कुल नाइट्रोजन की आधी  या दो तिहाई मात्रा बुवाई के समय खेत में छिड़क कर मिला दी जाती है. शेष मात्रा का 50% भाग पहली सिंचाई पर तथा शेष पहली कटाई के बाद दिया जाता है.

फास्फोरस तथा पोटाश का जई पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है. यदि भूमि में फास्फोरस की कमी हो यानी फास्फोरस की मात्रा 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से कम हो तो 30 से 40 ग्राम फास्फोरिक अम्ल बुवाई के समय खेत में डालकर मिट्टी में मिला देना चाहिए.

सिंचाई एवं जल निकास

जई के लिए सिंचाई की पर्याप्त आवश्यकता पड़ती है. पहली चाहिए बुवाई के 25 से 30 दिन बाद करनी चाहिए. फिर 15 से 30 दिनों के अंतर से सिंचाई करनी चाहिए. सिचाइयों से पौधों की अच्छी बढ़ोतरी होती है. तथा दौजियाँ अधिक निकलती हैं.

असिंचित क्षेत्र में अधिक दौजियाँ नहीं निकलती हैं.इसके अलावा पौधों की बढ़ोतरी भी कम होती है.

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फसल सुरक्षा

जई में खरपतवार बुवाई के 20 से 25 दिन बाद खुरपी या हो (hoe) की सहायता से निकालते रहना चाहिए. एक माह तक खेत को साफ रखने पर खरपतवार अपने आप ही कम हो जाते हैं.

जई के मुख्य खरपतवार बथुआ, सेंजी, कृष्णनील, बन प्याजी, चटरी मटरी तथा कहीं-कहीं कनाडा थिसिल (Canada thistle) पाया जाता है.

कभी-कभी जब खरपतवार खेत से नहीं निकाले जाते हैं. तो उपज और चारे की पौष्टिकता कम हो जाती है.

जई में अधिक खरपतवार होने पर रासायनिक नियंत्रण भी किया जा सकता है इस के छिड़काव के समय पौधों की व्यवस्था कम से कम 25 से 30 दिन की होनी चाहिए.

रासायनिक नियंत्रण के लिए 2-4 डी  सबसे उत्तम रासायनिक खरपतवार नासी माना जाता है इसकी आधा किलोग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी में घोलकर एक हेक्टर में छिड़काव करना चाहिए.

कटाई – प्रबंध एवं उपज

  • जई की बुवाई के 50 दिन बाद पहली कटाई करने पर हरा चारा लगभग 573 कुंटल प्रति हेक्टेयर लगभग प्राप्त होता है.
  • बुवाई के 60 दिन बाद  पहली कटाई करने पर लगभग 596 कुंतल प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त होता है.
  • बुवाई के 70 दिन बाद पहली कटाई करने पर लगभग 618 कुंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त होता है.
  • 50% पुष्पा अवस्था पर पहली कटाई करने पर लगभग 600 कुंटल प्रति हेक्टेयर हरा चारा प्राप्त होता है.
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