लोबिया चारे की खेती
देश में किसान भाई पशुपालन को अधिक महत्व देते हैं. क्योंकि यह आय का अतिरिक्त स्रोत होता है. इससे किसानों की अच्छी आमदनी होती है. लेकिन किसान के पशु अधिक दूध दे, इसके लिए हरे चारे की महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
इसीलिए आज के इस लेख में आप सभी को एक ऐसे ही हरे चारे के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं. जो पशुओं के लिए काफी अच्छा होता है. यह हरा चारा है लोबिया का चारा. लोबिया का चारा पशुओं के स्वास्थ्य के साथ-साथ उनका दूध उत्पादन भी बढ़ाता है. जिससे किसानों को पशुपालन में लाभ मिलता है. तो आइए जानते हैं लोबिया के चारे के बारे में पूरी जानकारी-
लोबिया का हरा चारा
लोबिया सिंचित स्थानों के लिए गर्मी में बोई जाने वाली चारे की एक मुख्य फसल है. इसकी उपज तथा पौष्टिकता इसकी कटाई की अवस्था पर निर्भर करती है. यदि चारा की कटाई फली बनने की अवस्था में की जाए, तो इसके चारे में 19.93 प्रतिशत अपरिष्कृत प्रोटीन तथा 50.58% पाचनशील कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है. अधिक देर से या जल्दी कटाई करने पर यह तत्व घटते और बढ़ते रहते हैं.
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लोबिया चारे की उत्पत्ति एवं वानस्पतिक विवरण
लोबिया भारत की दलहनी फसलों में से एक है. यह दाल एवं चारे दोनों के लिए उपयोग में लाई जाती है. लोबिया नाम ग्रीक भाषा के लोबरू शब्द से लिया गया है. जिसमें लोबरू का अर्थ फली से लगाया जाता है.
भारत इसकी उत्पत्ति का मुख्य केंद्र माना जाता है. यह फसल भारत से चीन तथा दूसरे दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों में ले जाई गई. उत्पत्ति के अन्य केंद्र चीन तथा अफ्रीका को भी माना जाता है.
लोबिया विश्व के सभी उष्ण एवं शीतोष्ण कटिबंधीय भागों में उगाई जाती है. भारत में इसको प्रायः सिंचित और अधिक वर्षा वाले भागों में उगाया जाता है. देश में इसकी खेती उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र के कुछ भागों, राजस्थान के कुछ भागों, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं बिहार में की जाती है.
उत्तर प्रदेश के सिंचित क्षेत्रों में फसल गेहूं की कटाई के बाद गर्मी के चारे के रूप में व जाती है. इसके अलावा इसे वर्षा प्रारंभ होने के दौरान भी बोया जाता है.
लोबिया का वानस्पतिक नाम विग्ना साननेन्सिस (Vigna sinensis) है. यह लेग्युमिनेसी कुल के फैबेसी (Fabaceae) उपकुल का पौधा है.
इसका पौधा बिल्कुल सीधा नहीं होता वरन आधा सीधा होता है. यह एक शाकीय (Herbaceous) पौधा है. जिसका तना खुरदरा होता है. तने की गांठ रोयेंदार होती है. अनुपर्ण (Stipules) बड़े तथा आधार पर स्थित होते हैं. इसकी पत्तियां की तिपत्रक रूप में झिल्लीदार एवं अंडाकार होती हैं. लोबिया के पुष्प पीले से लेकर नीले रंग के होते हैं.
लोबिया के लिए जलवायु एवं भूमि
लोबिया का अंकुरण 12 से 15 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर अच्छा देखा गया है. फिर भी इसकी खेती 29 से 35 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर की जा सकती है. यह फसल अधिक वर्षा वाले भागों में भी उगाई जा सकती है. अधिक पानी होने, जल निकास की कमी होने तथा सूखे की दशा में इसके पौधे मर जाते हैं. इसकी खेती दोमट, रेतीली दोमट और हल्की काली मिट्टी में की जा सकती है.
लोबिया के लिए फसल-चक्र
लोबिया की फसल भारत के विभिन्न भागों में भिन्न-भिन्न फसलों के साथ बोई जा सकती है. उड़ीसा क्षेत्र में यह मंडुवा या धान के साथ उगाई जा सकती है. गुजरात में यह बाजरे के साथ उगाई जा सकती हैं. केरल में नारियल के बगीचे में लोबिया उगाते हैं.
उत्तर भारत में प्रायः इसे मक्का + लोबिया, ज्वार + लोबिया, बाजारा + लोबिया साथ-साथ उगाते है. इससे चेहरे की पौष्टिकता बढ़ जाती है किसान भाई निम्न फसल चक्र अपना सकते हैं-
- ज्वार + लोबिया – बरसीम – मक्का + लोबिया (एकवर्षीय)
- धान – गेहूं – लोबिया (एकवर्षीय)
- सोयाबीन – गेहूं – लोबिया – मक्का (दाना) – गेहूं – लोबिया (द्विवर्षीय)
- ज्वार (दाना) – बरसीम – मक्का + लोबिया (एकवर्षीय)
लोबिया की उन्नत किस्में
चारे के लिए लोबिया की कई उन्नत किस्मों को उगाया जा सकता है. उत्तर भारत में मुख्य उन्नत किस्में सिरसा-10, के-397, रसियन जायंट, ई०सी०- 4216, के-585, ऍफ़०ओ०एस०-1 आदि प्रमुख है. कोयम्बतूर -1 और 2 मद्रास के लिए उप्युक्त है. इसके अलावा बिहार के लिए हाइब्रिड-2 अच्छी किस्म मानी जाती है.
इन किस्मों के अलावा एच०ऍफ़०सी० 42-1, यू०पी०सी० 5286, यू०पी०सी० 5287, यू०पी०सी० 4200 तथा यू०पी०सी० 287 प्रमुख किस्में है.
खेत की तैयारी
लोबिया के लिए खेत की बहुत तैयारी नहीं करनी पड़ती .है दोमट या बलुई दोमट वाले खेत में देसी हल या हैरो से दो से तीन जुताई करना पर्याप्त होता है. इसकी बुवाई के लिए भूमि की ऊपरी सतह कोई अच्छी प्रकार से तैयार करना चाहिए.
लोबिया की बुवाई कैसे करें
लोबिया की बीजदर 45 से 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखनी चाहिए. यह बीजदर ज्वार या बाजरा के साथ मिलवा खेती में कम हो जाती है. लोबिया की बुवाई मिलवा खेती में अलग लाइन में होनी चाहिए. छिटकवाँ बोने से अंकुरण कम होता है. सामान्य रूप से असिंचित लेकिन अधिक वर्षा वाले भागों में इसे वर्षा के प्रारंभ में बोलना चाहिए. और सिंचित क्षेत्रों में से जायद की फसल के रूप में बोया जाता है. लोबिया की बुवाई मार्च से लेकर सितंबर तक कभी भी कर सकते हैं. परंतु मानसून के पूर्व गर्मी में बोने के लिए सिंचाई के साधन पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए. उन्हें जगहों पर जहां पानी आसानी से मिल जाए और तापमान गिरने ना पाए इस फसल को कभी भी उगाया जा सकता है.
लोबिया के लिए खाद एवं उर्वरक
दूसरी फलीदार फसलों की तरह इस फसल को प्रति हेक्टेयर 25 से 30 किलोग्राम नाइट्रोजन तथा 60 किलोग्राम फास्फोरस की आवश्यकता पड़ती है. इन दोनों उर्वरकों को मिलाकर बुवाई के समय या उससे 2 दिन पहले खेत में डाल देना चाहिए. फास्फोरस की आवश्यकता भूमि में उपलब्ध फास्फोरस की मात्रा के अनुसार घटती बढ़ती रहती है. इसलिए मिट्टी की जांच जरूर करा लेनी चाहिए.
सिंचाई एवं जल निकास
मार्च के बाद बुवाई करने पर फसल को 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई की आवश्यकता होती है. पहली सिंचाई बुवाई के 15 दिन बाद की जानी चाहिए. जून-जुलाई में बोई गई फसल को सिंचाई की आवश्यकता नहीं पड़ती है. परंतु बरसात ठीक ना होने पर एक दो सिंचाई करनी पड़ सकती है. अगस्त में बुवाई करने पर सितंबर के बाद फसल को 15 दिन के अंतर पर सिंचाई करनी चाहिए. अधिक बरसात होने पर खेत में जल निकास की आवश्यकता पड़ती है. इसलिए जल निकास की व्यवस्था करनी चाहिए.
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फसल सुरक्षा
लोबिया की फसल में रोग लगने की संभावना कम रहती है. परंतु कभी-कभार हानिकारक कीटों का प्रकोप देखा जाता है. प्रायः इसमें रोमिंग इल्लियों (हेयरी कैटरपिलर) का आक्रमण होता है. इसको नियंत्रित करने के लिए कीड़ों के दिखने के तुरंत बाद 1 लीटर का थायोडॉन नामक कीटनाशक का 1000 लीटर पानी में बना गोल छिड़कना चाहिए. इससे कीड़ों का आक्रमण बिल्कुल खत्म हो जाता है. खरपतवार को निकालने के लिए फसल में एक बार निराई गुड़ाई करना पर्याप्त होता है.
कटाई प्रबंध एवं उपज
लोबिया की एक चारा कटाई की जाती है. परंतु कुछ किस्मों से जैसे रशियन जायंट आदि को अच्छे प्रबंधन की दशा में दो कटाईयां ली जा सकती हैं. एक से अधिक कटाई में उपज में वृद्धि होती है. दो कटाई करने की दशा में पहली कटाई बुवाई के 55 से 60 दिन बाद करनी चाहिए. इसमें कटाई के समय इस बात का ध्यान रखें कि दो से तीन उपरी शाखाओं के निकलने के स्थान से कटाई की जाए. इससे पुर्व्रध्दि अच्छी होती है. दूसरी कटाई फली बनने की अवस्था में की जानी चाहिए. एक कटाई वाली फसल में चारे की कटाई फली बनने की अवस्था में ही करनी चाहिए. इस प्रकार कुल हरे चारे की उपज 250 से 300 कुंतल प्रति हेक्टेयर 1 कटाई में तथा लगभग 350 कुंटल दो कटाइयों में प्राप्त होती है.