मसूर की खेती (Lentil farming) कैसे करे ?
नमस्कार किसान भाईयों, मसूर की खेती (Lentil farming) देश की विभिन्न राज्यों के किसान द्वारा बड़ी मात्रा में की जाती है. यह रबी की दलहनी फसलों में चना के बाद दूसरी पौष्टिक दलहन फसल है. इसकी खेती में लागत कम और बचत ज्यादा होती है. इसलिए गाँव किसान (Gaon kisan) आज अपने इस लेख में मसूर की खेती (Lentil farming) की पूरी जानकारी देगा वह भी अपनी भाषा हिंदी में. जिससे किसान भाई इसकी अच्छी उपज प्राप्त कर सके. तो आइये जानते है मसूर की खेती (Lentil farming) की पूरी जानकारी-
मसूर के फायदे
मसूर का उपयोग प्रमुख रूप से दाल में किया जाता है. इसकी दाल में 24 से 26 प्रतिशत प्रोटीन, 57 से 60 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 1.3 प्रतिशत वसा, 3.2 रेशा 69 मिग्रा० कैल्सियम, 300 मिग्रा० फास्फोरस, 7 मिग्रा० लोहा प्रति 100 ग्राम में पाया जाता है. इसके अलावा इसमें विटामिन A तथा रिवोफ्लेवीन (Riboflavin) प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. इसका सेवन मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत ही फायदेमंद है.
देश के कुछ भागों में मसूर की फसल हरी खाद के लिए भी उगाई जाती है. क्योकि इसकी जड़ों में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणुओं द्वारा वायु की स्वतंत्र नाइट्रोजन का संस्थापन यौगिक नाइट्रोजन के रूप में भूमि में होता है. कुछ क्षेत्रों में इसके पौधे को हरे चारे के रूप में जानवरों को भी खिलाया जाता है.
उत्पत्ति एवं क्षेत्र विस्तार
मसूर पुरानी फसलों में से एक है. जिसकी उत्पत्ति टर्की (Turkey) तथा दक्षिण ईरान क्षेत्रों में हुई है. जिसके बाद इसका प्रवेश यूरोप, भारत तथा चीन में हुई. भारत में मसूर की खेती मुख्य रूप से बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा पश्चिम बंगाल में होती है.
उपयुक्त जलवायु एवं मिट्टी
मसूर की खेती उपोष्ण कटिबंधीय (Sub-tropical) जलवायु से लेकर शीतोष्ण (Temperate) जलवायु तक की जाती है. इसके पौधे के समुचित विकास के लिए सर्वोत्तम तापमान 15 से 25 डिग्री० सेल्सियस तक होता है.
मसूर की खेती सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है. लेकिन बलुई दोमट, दोमट तथा भारी मिट्टी में खेती कर अच्छी उपज प्राप्त की जा सकती है.
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प्रमुख उन्नत किस्में (Lentil farming)
मसूर की प्रमुख उन्नत किस्में निम्न लिखित है-
किस्में | बुवाई का समय | पकने की अवधि (दिनों में) | औसत उपज (कुंटल/हेक्टेयर) |
नरेन्द्र मसूर-1 | 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर | 120 से 125 | 20 से 25 |
आई० पी० एल० 406 | 25 अक्टूबर से 25 नवम्बर | 130 से 140 | 18 से 20 |
आई० पी० एल० 408 | 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर | 120 से 130 | 15 से 18 |
पन्त मसूर-4 | 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर | 135 से 140 | 18 से 20 |
मल्लिका (के०-75) | 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर | 130 से 135 | 20 से 22 |
अरुण (पी० एल० 77-12) | 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर | 110 से 120 | 22 से 25 |
पी० एल० 639 | 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर | 120 से 125 | 18 से 20 |
पूसा वैभव | 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर | 135 से 140 | 16 से 18 |
के० एल० यस० 218 | 25 अक्टूबर से 15 नवम्बर | 120 से 125 | 20 से 25 |
खेत की तैयारी (Lentil farming)
मसूर की बुवाई के लिए धान की फसल की कटाई के बाद तैयारी शुरू कर देनी चाहिए. यदि खेत में नमी की कमी हो तो खेत में पलेवा कर देना चाहिए. इसके बाद डिस्क व कल्तिवात्र से दो या तीन जुताइयाँ करनी चाहिए. हर जुताई के बाद पाटा अवश्य लगाये. जिससे मिट्टी भुरभुरी एवं समतल हो जाए. इस बात का ध्यान जरुर रखे खेत से जल निकास की उचित व्यवस्था अवश्य करे.
बोने का समय
देश में विभिन्न क्षेत्रों में अक्टूबर से दिसम्बर तक इसकी बुवाई की जा सकती है. वर्ष आश्रित क्षेत्रों में मसूर की बुवाई का सही समय अक्टूबर माह का अंतिम सप्ताह है. जबकि सिंचित क्षेत्रों में नवम्बर से दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक इसकी बुवाई की जा सकती है.
बीज की मात्रा (Lentil farming)
बीज की मात्रा बीज के आकार, भूमि की उर्वरकता व बुवाई की विधि आदि बातों पर निर्भर करता है. छोटे दानों वाली प्रजाति का 25 से 30 किलों एवं बड़े दानों वाली प्रजाति का 35 से 40 किलों प्रति हेक्टेयर बीज की दर आवश्यकता होती है. देर से बुवाई करने के लिए या कमजोर भूमियों में बीज दर 50 से 60 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक रखा जा सकता है.
बीजोपचार (Lentil farming)
मसूर की फसल को विभिन्न बीज जनित रोगों से बचाने के लिए बुवाई से पहले बीजोपचार करना चाहिए. इसके लिए 2 ग्राम थाइरम तथा कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम या वाविस्टिन 2 ग्राम प्रति किलों बीज दर से करना चाहिए.
खाद एवं उर्वरक
मसूर की अच्छी उपज के लिए उचित खाद एवं उर्वरको का प्रयोग मृदा परिक्षण के अनुसार करना चाहिए. मसूर की फसल के लिए 5 से 8 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से खेत तैयार करते समय डालना चाहिए. इसके अलावा नाइट्रोजन 20 किग्रा०, फास्फोरस 50 किग्रा० तथा पोटाश 30 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए. जिंक की कमी दूर करने के लिए 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट एवं 0.25 प्रतिशत चूने के घोल का छिड़काव खड़ी फसल में आवश्यकतानुसार करना चाहिए.
सिंचाई (Lentil farming)
मसूर की खेती अधिकतर असिंचित क्षेत्रों में की जाती है. मसूर में पहली सिंचाई शाखाएं निकलने पर तथा दूसरी सिंचाई भूमि की आवश्यकतानुसार फली निकलने की अवस्था पर स्प्रिंकलर या बहाव विधि से करना चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण
फसल की बुवाई के 25 से 30 दिन बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिए. इससे भूमि वायु संचार भी अच्छा होता है. साथ ही भूमि में नमी लम्बे समय तक बनी रहती है. रासायनिक विधि से खरपतवार नियंत्रण करने केलिए फ़्लूक्लोरेलिन 1 किग्रा० 800-1000 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की दर से बुवाई से पहले खेत में छिड़कर नम मिट्टी में अच्छी प्रकार से कल्टीवेटर की सहायता से मिला देनी चाहिए.
कटाई एवं मड़ाई (Lentil farming)
जब फसल की फलियाँ पकने लगती है. तब कटाई कर लेनी चाहिए. कटाई के उपरांत 2 से 3 दिन धूप में सुखाकर बैलों या ट्रेक्टर द्वारा मड़ाई कर दानों को अलग कर लेना चाहिए.
उपज एवं भण्डारण
मसूर की उन्नत खेती करके इसके दानों की औसत उपज 20 से 25 कुंटल प्रति हेक्टेयर व भूसे की उपज 30 से 35 कुंटल प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त हो जाती है.
भंडारण में अनाज रखने से पूर्व मसूर के दानों में नमी की प्रतिशत 8 से 12 के लगभग होनी चाहिए.
प्रमुख कीट एवं रोग प्रबन्धन
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण
माहूँ कीट – इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ पत्तियों, तनों एवं फलियों का रस चूसकर कमजोर कर देते है. माहूँ मधुस्राव करते है जिस पर काली फफूंद उग आती है. जिससे प्रकाश संश्लेषण में बाधा उत्पन्न होती है.
रोकथाम – माहूँ कीट के नियंत्रण के लिए डाईमथोएट 30 प्रतिशत ई०सी० अथवा ऑक्सीडेमेटान-मिथाइल 25 प्रतिशत ई०सी० की 1.0 लीटर लगभग 500 से 600 लीटर पानी में मिलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करे.
फली बेधक कीट – इस कीट की सूड़ियाँ फलियों में छेद बनाकर अन्दर घुस जाती है. तथा अन्दर-अन्दर ही दानों को खाती रहती है. तीव्र प्रकोप होने की दशा में फलियां खोखली हो जाती है. तथा उत्पादन में गिरावट आ जाती है.
रोकथाम – इस कीट के नियंत्रण के लिए बैसिलस थूरिनजिएन्सिस (बी० टी०) की कर्स्तकी प्रजाति 1.0 किग्रा० का बुरकाव अथवा 500 से 600 लीटर पानी के घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करवाना चाहिए.
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प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
जड़ सडन – बुवाई के 15 से 20 दिन बाद पौधा सूखने लगता है. पौधे को उखाड़कर देखने पर तने पर रुई के समान फफूंद लिपटी हुई दिखाई देती है.
रोकथाम – इस रोग के नियंत्रण के लिए थीरम 75 प्रतिशत व कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत (2:1) 3.0 ग्राम से बीज का बीजोपचार करना चाहिए.
उकठा रोग – इस रोग में पौधा धीरे-धीरे मुरझाकर सूख जाता है. छिलका भूरे रंग का हो जाता है. तथा जड़ चीर कर देखे तो उसके अन्दर भूरे रंग की धारियां दिखाई देती है. उकठा का प्रकोप पौधे की किसी अवस्था में हो सकता है.
रोकथाम – इसके बचाव के लिए गर्मियों में डिस्क हल से गहरी जुताई करनी चाहिए. जिस भी खेत में उकठा लगता हो उस खेत में 3 से 4 वर्ष तक मसूर की फसल कोई बुवाई नही करनी चाहिए. बुवाई से पहले बीज का बीजोपचार करना चाहिए.
गेरुई रोग – इस रोग में पत्तियों तथा तने पर नारंगी रंग के फफोले बनते है. जिससे पत्तियां पीली होकर सूखने लगती है.
रोकथाम – इस रोग से बचाव के लिए मेन्कोजेब 75 डब्ल्यू० पी० का 2.0 किग्रा अथवा प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत ई०सी० की 500 मिली० मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए.
निष्कर्ष
किसान भाईयों उम्मीद है गाँव किसान (Gaon kisan) के मसूर की खेती (Lentil farming) से सम्बंधित इस लेख से सभी जानकारियां मिल पायी होगी. गाँव किसान (Gaon kisan) द्वारा मसूर के फायदे से लेकर मसूर के कीट एवं रोग प्रबंधन तक की सभी जानकरियां दी गयी है. फिर भी मसूर की खेती (Lentil farming) से सम्बन्धित आपका कोई प्रश्न हो तो कमेन्ट बॉक्स में कमेन्ट कर पूछ सकते है. इसके अलावा गाँव किसान का यह लेख आपको कैसा लगा कमेन्ट कर जरुर बताएं. महान कृपा होगी.
आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद, जय हिन्द.