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Kidney Bean Farming – राजमा की खेती कैसे करे ? (हिंदी में)

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राजमा की खेती ( Kidney Bean Farming) कैसे करे ?

राजमा की खेती ( Kidney Bean Farming) कैसे करे ?

 नमस्कार किसान भाईयों, राजमा की खेती ( Kidney Bean Farming) देश के विभिन्न राज्यों में की जाती है. यह एक दलहनी फसल है. जिसकी खेती कर किसान भाई अच्छा लाभ कमा सकते है. गाँव किसान (Gaon Kisan) आज अपने इस लेख में राजमा की खेती ( Kidney Bean Farming) की पूरी जानकारी देगा वह भी अपने देश की भाषा हिंदी में. जिससे किसान भाई अच्छी उपज प्राप्त कर सके. तो आइये जानते है राजमा की खेती ( Kidney Bean Farming) की पूरी जानकारी-

राजमा के फायदे 

भारत के ज्यादातर हिस्सों में राजमा को लोग काफी पसंद करते है. देश में इसको को लोग दाल के रूप में या तल कर खाते है. इसकी हरी फलियों की सब्जी बनाई जाती है. इसमें 21 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा पायी जाती है. इसके अलावा इसमें आयरन, फाइबर, मैग्नीशियम, विटामिन के, विटामिन बी आदि पाया जाता है. इसके सेवन से वजन नियंत्रित, शरीर को ताकत, पाचन क्रिया अच्छी, दिमाग को पोषित करता है.

उत्पति एवं क्षेत्र

राजमा का वैज्ञानिक नाम फैजियोलस बल्गेरिस है. यह लैंगुमिनोसी कुल का पौधा है. इसकी उत्पत्ति अमेरिका में हुई है. राजमा की खेती अफ्रीका, यूरोप और अमेरिका के भागों में दलहनी फसल के रूप में होती है. साथ ही भारत और एशिया के अन्य देशों में भी उगाया जाता है. भारत में इसकी खेती उत्तराखंड के पर्वतीय भागों, हिमाचल प्रदेश, कर्णाटक के भाग तथा तमिलनाडु व आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में की जाती है.

भूमि एवं जलवायु 

राजमा की खेती के लिए दोमट तथा हल्की दोमट मिट्टी सर्वोत्तम होती है लेकिन एक बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए भूमि से जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए.

राजमा उष्ण कटिबंधीय जलवायु की फसल है. इसकी अच्छी उपज के लिए तापमान 10 डिग्री सेंटीग्रेड से 27 डिग्री सेंटीग्रेड के बीच का होना चाहिए. इससे ज्यादा तापमान में इसमें फूल झड़ने की समस्या हो जाती है. तथा 5 डिग्री सेंटीग्रेड से कम होने पर पौधे के साथ-साथ उपज में भी हनी पहुंचती है.

खेत की तैयारी (Kidney Bean Farming)

राजमा की खेती के लिए जुलाई माह में पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करनी चाहिए. इसके बाद दो तीन जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करनी चाहिए. जुताई के बाद पाटा अवश्य चलाये जिससे मिट्टी समतल व भुरभरी बन जाय. इस बात का ध्यान अवश्य रखे, कि बुवाई के समय भूमि में पर्याप्त नमी होनी चाहिए.

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उन्नत किस्में (Kidney Bean Farming)

राजमा की उन्नत किस्में निम्नवत है-

पी० डी० आर – 14 (उदय)

यह किस्म 1987 में खोजी गयी. इसके दाने लाल चित्तीदार होते है. यह 125 से 130 दिन में पककर तैयार हो जाती है. इसकी उत्पादकता 30 से 35 कुंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

मालवीय – 137 

इस किस्म को 1991 में इजाद किया गया. इसके दाने लाल भूरे होते है. यह 110 से 115 दिन में पककर तैयार हो जाती है. इसकी पैदावार 25 से 30 कुंटल प्रति हेक्टेयर है.

वी० एल० – 63 

इस किस्म का दाना भूरा चित्तीदार होता है. यह 115 से 120 दिन में पककर तैयार हो जाती है. इसकी उत्पादकता 25 से 30 कुंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

अम्बर (आई० आई० पी० आर० – 96 -4)

इस किस्म को 2002 में खोजा गया. इसका दाना लाल चित्तीदार होता है. यह 120 से 125 दिन में पककर तैयार हो जाती है. इसकी उत्पादकता 20 से 25 कुंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

उत्कर्ष (आई० आई० पी० आर० – 98 – 5)

इस किस्म को 2005 में इजाद किया गया था. इसका दाना गहरा चित्तीदार होता है. यह 130 से 135 दिन में पककर तैयार हो जाती है. इसका उत्पादन 20 से 25 कुंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

अरुण 

इसको 2001 में खोजा गया था. इसका रंग लाल होता है. यह 120 से 125 दिन में पककर तैयार हो जाती है. जिसकी उत्पादकता 15 से 18 कुंटल प्रति हेक्टेयर होती है.

बीज की मात्रा व बुवाई की दूरी 

राजमा की बुवाई के लिए 120 से 140 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता पड़ती है. बुवाई के समय पंक्ति से पंक्ति की दूरी 30 से 40 सेमी० तथा पौधे से पौधे की दूरी 10 सेमी० रखते है. बीज 8 से 10 सेमी० गहराई में थीरम से बीज उपचार करने के बाद डालना चाहिए ताकि पर्याप्त नमी मिल सके.

बीज शोधन (Kidney Bean Farming)

बुवाई से पहले बीज को फफूंदनाशक पाउडर कार्बन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम प्रति किग्रा० बीज की दर से बीज शोधन करने से अंकुरण के समय रोगों का प्रकोप नही होता है.

बुवाई का समय (Kidney Bean Farming)

राजमा की बुवाई अक्टूबर के तीसरे एवं चौथे सप्ताह में करना सबसे उपयुक्त होता है. इसके बाद में बुवाई करने से उपज कम होती है.

उर्वरक (Kidney Bean Farming)

राजमा की अच्छी उपज के लिए खाद एवं उर्वरक की अहम भूमिका होती है राजमा में राइजोबियम ग्रंथियां होने के कारण नत्रजन की अधिक आवशयकता पड़ती है. राजमा की फसल के लिए 120 किलोग्राम नत्रजन, 60 किलोग्राम फास्फेट एवं 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर तत्व के रूप में देना आवश्यक होता है. इसमें से 60 किलोग्राम नत्रजन तथा फास्फेट एवं पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय तथा बची हुई नत्रजन की आधी मात्रा टाप ड्रेसिंग कर देना चाहिए. अच्छी उपज के लिए 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गंधक का प्रयोग करना चाहिए. 30 दिन तथा 50 दिन पर 2 प्रतिशत यूरिया के घोल के छिड़काव से उपज में बढोत्तरी होती है.

सिंचाई (Kidney Bean Farming) 

राजमा की खेती में ज्यादा सिंचाई की आवश्यकता नही पड़ती है. इसमें केवल 2 से 3 पानी में ही इसकी अच्छी उपज हो जाती है. बुवाई के चार सप्ताह बाद पहली सिंचाई करनी चाहिए. इसके उपरांत एक महीन बाद पुनः सिंचाई करे. सिंचाई करते समय यह ध्यान रखे सिंचाई हल्की करनी चाहिए ताकि खेत में पानी न भरे.

निराई-गुड़ाई (Kidney Bean Farming)

राजमा में पहली सिंचाई के बाद निराई-गुड़ाई करनी चाहिए. गुड़ाई करते समय पौधे के आसपास मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए, जिससे फली लगते समय पौधे को सहारा मिल सके. खेत में अधिक खरपतवार होता हो तो फसल उगने से पहले पेंडीमेथलीन का छिड़काव (3.3 लीटर प्रति हेक्टेयर) का छिड़काव कर देने से इसकी रोकथाम की जा सकती है.

कटाई एवं भण्डारण 

राजमा की फलियाँ जब पक जाय तो इसकी कटाई कर लेनी चाहिए. तथा इसको सूखने के लिए धूप में डाल देना चाहिए. जब फलिया चटकने लगे तो इसकी मड़ाई कर दाना निकल लेना चाहिए. राजमा को नमी वाले स्थान पर न भंडारित करे.

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राजमा के रोग एवं कीट प्रबन्धन

रोग प्रबन्धन 

जड़ गलन – राजमा के इस रोग में जड़ के ऊपरी हिस्से में लाल-भूरे धब्बे पड़ जाते है. तथा पत्तियां पीली पड़ कर सूख जाती है.

रोकथाम – इस रोग की रोकथाम के लिए प्रमाणित बीज का प्रयोग करे तथा बुवाई से पूर्व बीज को उपचारित करे. खेत से पानी निकास का उचित प्रबन्धन करना चाहिए.

श्याम वर्ण – इस रोग में फलियों में गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते है तथा पत्तियों में शिराएँ पीली पड़ जाती है.

रोकथाम – इसकी रोकथाम के लिए कार्बेन्डाजिम से बीज को उपरित करे तथा 1 ग्राम दवा 1 लीटर पानी की दर से घोल कर छिड़काव करे.

कोणदार पर्णचित्ती – पत्तियों में कोणदार धब्बे बन जाते है तथा फलियों की सतह पर भूरे रंग के गोल धब्बे दिखाई देते है.

रोकथाम – इस रोक की रोकथम के लिए बीजों को जैविक फफूंदनाशी 3 ग्राम प्रति किग्रा० की दर से बीजों को उपचारित करना चाहिए.

कीट प्रबन्धन 

चूसक कीट – इस कीट का प्रकोप मई से अक्टूबर तक राजमा की फसल पर अधिक होता है. छोटे भूरे रंग का यह कीट वयस्क एवं निम्फ दोनों अवस्थाओं में पत्तियों का रस चूसकर सफ़ेद धब्बे बना देता है.

रोकथाम – इसकी रोकथाम के लिए मोनोक्रोटोफ़ॉस 36 एस० सी० (1.25 मिली० दवा प्रति लीटर पानी में) घोलकर खड़ी फसल में छिड़काव करे.

फफोला भृंग – इस कीट का प्रकोप जुलाई से अक्टूबर तक ज्यादा होता है. इसका वयस्क भृंग आकर में बड़ा एवं इसके पंखों पर काली या धारियाँ बनी होती है. ये पत्तियों, फूलो, फलियों को खाकर काफी नुकसान पहुंचता है.

रोकथाम – इस कीट का अधिक प्रकोप होने पर मैलाथियान 5 प्रतिशत धूल का 20 से 25 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से बुरकाव करना चाहिए.

कुरमुला – यह कीट पर्वतीय क्षेत्रों में राजमा की फसल को काफी हानि पहुंचता है.

रोकथाम – इस कीट की रोकथाम के लिए बुवाई से पहले जुताई के बाद में अथवा निराई-गुड़ाई करते समय फेरिट थिमेट 10 प्रतिशत दानेदार का आधा किग्रा० प्रति नाली की दर से मिट्टी में अच्छी तरह मिला देना चाहिए. इसके अलावा प्रकाश प्रपंच का भी उपयोग कर सकते है.

निष्कर्ष 

किसान भाईयों उम्मीद है, गाँव किसान (Gaon Kisan) का राजमा की खेती ( Kidney Bean Farming) से सम्बंधित इस लेख से आप सभी को पूरी जानकारी मिल पायी होगी. गाँव किसान (Gaon Kisan) द्वारा राजमा के फायदे से लेकर राजमा के कीट एवं रोग प्रबन्धन तक की सभी जानकारियां दी गयी है. फिर भी राजमा की खेती ( Kidney Bean Farming) से सम्बंधित आपका कोई प्रश्न या सुझाव हो तो कमेन्ट बॉक्स में कमेन्ट कर बता सकते है. इसके अलावा यह लेख आपको कैसा लगा कमेन्ट कर जरुर बताएं. महान कृपा होगी.

आप अभी का बहुत-बहुत धन्यवाद, जय हिन्द.

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