गेहूं की खेती का हेल्मिन्थोस्पोरियम रोग
गेहूं की खेती के रोगों की इस कड़ी में आज हम बात कर रहे है. गेहूं के हेल्मिन्थोस्पोरियम रोग के बारे में. यह गेहूं की फसल को हानि पहुँचाने वाला प्रमुख रोग है. जिससे गेहूं की खेती में यह उपज को काफी कम कर देता है. जिससे किसानों को लाभ की जगह हानि उठानी पड़ती है.
आज गाँव किसान के इस लेख में गेहूं के हेल्मिन्थोस्पोरियम के फसल में दिखने मुख्य लक्षणों को जानेगें, इसके साथ प्रकोप क्षेत्र, प्रकोप का समय, रोग की शुरुवात, अनुकूल परिस्थितियां और नियंत्रण के बारे किसान भाइयों को जानकारी देने की कोशिश करगें, जिससे किसान भाई गेहूं की अपनी फसल को इस रोग से बचा सके. तो आइये जानते है रोग की पूरी जानकारी –
हेल्मिन्थोस्पोरियम रोग के मुख्य लक्षण
इस रोग प्रमुख लक्षणों में से एक है तल विगलन के कारन फसल बौनी रह जाती है. पौधे में दौजियाँ अधिक निकलती है. प्रकोप अधिक होने पर अंगमारी के कारण भी पौध मर जाती है. पर्ण चित्ती अवस्था में पत्तियां और पर्णच्छ्दों पर पीली-भूरी से भूरी चित्तियाँ दिखाई देती है. इस अवस्था को धब्बा रोग भी कहते है.
रोग का प्रकोप क्षेत्र
गेहूं की खेती का यह रोग गेहूं उगाने वाले सभी क्षेत्रों में पाया जाता है. गेहूं की एस० 227 जाति में इस रोग से 20 प्रतिशत तक की हानि दिखाई पड़ती है.
प्रकोप का समय एवं शुरुवात
इस रोग की शुरुवात अक्टूबर एवं नवम्बर माह होती है. यह रोग जनक, मृदोढ और बीजोड़ है. कीट भी रोग शुरू करने में सहायक है. द्वितीयक संक्रमण धब्बों पर बने असंख्य कोनिडियमो द्वारा होता है.
रोग की अनुकूल परिस्थियाँ
बुवाई के समय भूमि का तापमान अधिक और नमी कम हो, तो रोग अधिक पाया जाता है. फसल के लिए प्रतिकूल मौसम होने पर भी रोग का प्रकोप अधिक होता है.
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रोग का नियंत्रण
किसान भाई रोग का नियंत्रण निम्न प्रकार से कर सकते है-
- फसल की कटाई के बाद बचे हुए पौधे के अवशेषों को जलाकर नष्ट कर देना चाहिए..
- अपने खेत में 2 से 3 वर्ष का फसल-चक्र अपनाना चाहिए. उसमें धान्य फासले नही लेनी चाहिए.
- थाइरम जैसे रसायन से बीज का बीजोपचार करके की बुवाई करनी चाहिए.