अफीम की खेती कर किसान भाई बन सकेंगे मालामाल

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afim ki kheti
 अफीम की खेती 

 अफीम की खेती 

देश में अफीम को काला सोना भी कहा जाता है. क्योंकि यह एक औषधि फसल है. यह एक वर्षीय पौधा है, जिसे रबी के मौसम में लगाया जाता है. पौधे के ऊपरी भाग पर सफेद, गुलाब एवं लाल रंग के फूल लगते हैं फूल के पूर्ण विकसित मादा भाग को डोड़ा कहते हैं. कच्चे कठोर डोडे में चीरा लगाया जाता है. जिससे हल्का गुलाबी रंग का दूध निकलता है. जो सूखने के बाद काले रंग में परिवर्तित हो जाता है. जिसे “अफीम” कहा जाता है.

अफीम पोस्ता फूल देने वाला एक पौधा है. जो पापी कुल का है. भारत में पोस्ते की फसल उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश एवं राजस्थान में बोई जाती है. पोस्ते की खेती एवं व्यापार करने के लिए सरकार की आबकारी विभाग से अनुमति लेना आवश्यक है. पोस्ते के पौधे से अहिफेम यानी अफीम निकलती है. जो नशीली होती है. अफीम की खेती की ओर लोग सबसे ज्यादा आकर्षित होते हैं क्योंकि यह बहुत कम लागत में अधिक कमाई होती है. वैसे तो देश में अफीम की खेती गैरकानूनी है लेकिन उसे नारकोटिक्स विभाग से स्वीकृति लेकर किया जा सकता है. 

अफीम की खेती के लिए उचित जलवायु एवं भूमि 

अफीम की खेती के लिए समशीतोष्ण जलवायु की जरूरत होती है इसकी खेती के लिए 20 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त होता है.

अफीम की खेती लगभग सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है. लेकिन अफीम की अच्छी उपज के लिए चिकनी अथवा दोमट भूमि उपयुक्त होती है. परंतु भूमि से जल निकास की उचित व्यवस्था होनी चाहिए और भूमि का पी० एच० मान 7 तक होना चाहिए. लेकिन उस खेत में अफीम की पैदावार अच्छी होगी, जिसमें पिछले 5-6 वर्षों तक अफीम की खेती नहीं की गई हो.

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अफीम की प्रमुख  उन्नत किस्में

अफीम की प्रमुख उन्नत किस्में जिन की बुवाई कर किसान भाई अच्छी उपज ले सकते हैं वह निम्नलिखित हैं-

तालिया किस्म  

अफीम की इस किस्म को जल्दी बोला जाता है. यह 140 दिन तक यह खेत में खड़ी रहती है. इसके फूल गुलाबी रंग के होते हैं, और बड़ी पंखुड़ियां होती हैं. इसका कैप्सूल आयताकार अंडाकार हल्का हरा और चमकदार होता है.

रंगघाटकी किस्म 

अफीम की यह किस्म ज्यादा लंबी नहीं होती, यह केवल मध्यम लंबी होती है. बुवाई के बाद 125 से 130 दिनों में लैसिंग के लिए पक जाती है. इसमें सफेद और हल्के गुलाबी रंग के फूल लगते हैं. इसका जो कैप्सूल होता है वह मध्यम आकार का होता है. इसकी लंबाई 7.6 सेमी से 5 सेमी के बीच तक होती है. शीर्ष पर थोड़ा सा चपटा होता है. यह अपेक्षाकृत पतली स्थिरता की अफीम पैदा करता है. जो एक्स्पोज़र पर गहरे भूरे रंग के रंग में बदल जाता है.

श्वेता

अफीम की इस किस्म को सीआईएमएपी लखनऊ द्वारा जारी किया गया था. इसका मुख्य अल्कलॉइड मार्फिन 15.75 से 22.38%, कोडीन 2.15 से 2.76%, थेबाइन 2.04 से 2.5%, पैपेवरिन 0.94 से 1.1% की सामग्री में बेहतर पाया गया है. नारकोटिन 5.94 से 6.5% तक होता है यह औसतन 42.5 किलोग्राम लेटेस्ट और 7.8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज देता है. 

कीर्तिमान (एनओपी-4)

इस किस्म को आचार्य नरेंद्र देव कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय कुमारगंज फैजाबाद में स्थानीय जातियों के माध्यम से विकसित किया गया था. यह डाउनी फफूंदी के लिए मध्यम प्रतिरोधी किस्म है. यह 35 से 45 किग्रा प्रति हेक्टेयर लेटेस्ट और 9 से 10 कुंतल प्रति हेक्टेयर बीच उत्पन्न करती है. मार्फिन सामग्री 12% तक होती है.

चेतक (यू०ओ० 285)

इस किस्म को राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय उदयपुर द्वारा खोजा गया था. यह रोग के लिए मध्यम प्रतिरोधी है. इस अफीम की उपज 54 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक होती है. और बीज उत्पादन 10 से 12 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है. और मार्फिन इसमें 12% तक होता है. सामान्य तौर पर फसल को स्वस्थ वनस्पतिक विकास के लिए शुरुआती मौसम में पर्याप्त धूप के साथ लंबे ठंडे मौसम की आवश्यकता होती है. बुवाई के बाद भारी बारिश से बीज अंकुरण को नुकसान होता है.

जवाहर अफीम 16

इस किस्म को जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय मंदसौर मध्य प्रदेश द्वारा विकसित किया गया था. यह डाउनी फफूंदी के लिए मध्यम प्रतिरोधी किस्म है. यह अफीम 45 से 54 किग्रा हेक्टेयर लेटेस्ट 8 से 10 कुंतल प्रति हेक्टेयर 20 देता है. इसमें भी 12% तक मार्फिन पाया जाता है.

अफीम की बीज दर और बीज का उपचार कैसे करें

किसान भाई बीज की बुवाई, उसकी बुवाई विधि पर निर्भर करती है. अगर किसान भाई बीज की बुवाई कतार में करते हैं तो 5 से 6 किग्रा०, अगर वह बीज की बुवाई फेककर करते हैं तो 7 से 8 किग्रा प्रति हेक्टेयर बीज की आवश्यकता होती है.

अफीम की फसल में बहुत छोटी अवस्था में ही काली मस्सी एवं कोडिया रोग का प्रकोप शुरू हो जाता है. अतः इस रोग से फसल को बचाने के लिए बीज को फफूंद नाशक दवा जैसे मेटालेक्सिल 35 एस० डी० 8 से 10 ग्राम प्रति किग्रा या मैनकोज़ेब m45 2 ग्राम प्रति 1 किग्रा बीज की दर से जरूर उपचारित करें.

बुवाई का उचित समय

अफीम की बुवाई का उचित समय अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से लेकर नवंबर के दूसरे सप्ताह तक सबसे उपयुक्त होता है. इसी बीच किसान भाइयों को अफीम की बुवाई कर लेनी चाहिए जिससे कि अच्छी उपज हो. 

अफीम की खेती के लिए खेत तैयारी

अफीम की खेती के लिए खेत तैयारी बहुत महत्वपूर्ण होती है. क्योंकि अफीम का बीज बहुत छोटा होता है. इसलिए खेत की दो से तीन बार खड़ी और ऑडी जुताई करनी चाहिए और हर बार पाटा लगाना चाहिए. जिससे कि खेत की मिट्टी एकदम भुरभुरी हो जाए और बुवाई के लिए तैयार हो जाए. जुताई के साथ ही 20 से 30 टन तक गोबर की सड़ी हुई खाद भूमि में मिला देनी चाहिए. उसके बाद पाटा लगा देना चाहिए. इसके अलावा जब यह कार्य कर ले तो 3 मीटर लंबी और 1 मीटर चौड़ी आकार की क्यारियां तैयार कर ली जाती हैं.

अफीम की बुवाई विधि

अफीम के बीजों को 0.5 से 1 सेमी० की गहराई पर 30 सेंटीमीटर कतार से कतार तथा  0 से 9 से मी पौधे से पौधे की दूरी रखते हुए किसान भाइयों को बुवाई करनी चाहिए.

निराई गुड़ाई तथा छटाई

अफीम की खेती में निराई गुड़ाई और छटाई की क्रियाएं बहुत ही आवश्यक होती हैं. पहली निराई-गुड़ाई 20 से 25 दिनों बाद, दूसरी निराई गुड़ाई 35 से 40 दिनों के बाद रोग व क्षतिग्रस्त एवं विकसित पौधों को निकालते हुए करनी चाहिए. अंतिम छटाई 55 से 60 दिनों के बाद पौधे से पौधे की दूरी 8 सेमी और प्रति हेक्टेयर 3.5 से 4 लाख पौधे रखते हुए करें.

खाद एवं उर्वरक

अफीम की फसल से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए खाद एवं उर्वरक की उचित मात्रा का प्रयोग करना उपयुक्त होता है. इसके लिए मृदा परीक्षण करवाना अति आवश्यक है. इसके लिए हरी खाद के रूप में बारिश के मौसम में लोबिया अथवा सनई को बो देना चाहिए. इसके अतिरिक्त यूरिया 38 किलो सिंगल सुपर फास्फेट 50 किलो और म्यूरेट आफ पोटाश आधा किलो गंधक डालें.

सिंचाई

बुवाई के बाद पहली सिंचाई तुरंत एवं धीमी गति से करनी चाहिए ताकि बीज के ऊपर मिट्टी नहीं आ पाए अन्यथा बीज मिट्टी में गहरे दबने से अंकुरित नहीं होंगे. इसके लिए सिंचाई करते समय एक साथ आठ से 10 क्यारियों में पानी छोड़ देना चाहिए. दूसरी सिंचाई 4 से 5 दिन बाद हल्की व धीमी करनी चाहिए. इसके आवश्यक इसके बाद आवश्यकतानुसार 10 से 12 दिन के अंतराल पर सिंचाई की जानी चाहिए.

अफीम की खेती में फसल चक्र

अफीम की अच्छी फसल लेने के लिए अफीम को बार-बार एक खेत में नही की जाएं क्योंकि कई प्रकार की बीमारियां के अवशेष उस खेत में पड़े रहते हैं. जो अगली अफीम की फसल को प्रभावित करते हैं.

इस आपका मक्का और अफीम, उड़द और अफीम, मूंगफली और अफीम, सोयाबीन और अफीम, इनकी आप बदल बदल कर खेती कर सकते हैं.

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चीरा लगाना तथा अफीम लूना (लासिंग)

अफीम लूने का सही समय पर चीरा लगाने के दूसरे दिन सवेरे जल्दी से जल्दी का है. डोडे को हाथ से दबा कर देखें, यदि डोडा कुछ ठोस लगे तो समझ लेना चाहिए कि डोडा चीरा लगाने लायक हो गया है. सामान्यतया फसल 100 से 105 दिन में चीरा लगाने लायक उपयुक्त हो जाती है. चीरा लगाने का कार्य दोपहर के बाद करना चाहिए. डोडे पर तिरछी सिरे लगाए जाने चाहिए. जिससे कि अधिकांश कोटि कोशिकाएं कट जाने से अधिक मात्रा में दूध रिसता है. अफीम के डोडे पर सामान्यता तीन से छह बार चीरा लगाया जाना चाहिए तथा 1 या 1 से 2 दिन छोड़कर लगाना चाहिए.

अफीम की उपज

अफीम उत्पादन उन्नत प्रौद्योगिकी से करने पर दूध उत्पादन लगभग 65 से 70 किग्रा प्रति हेक्टेयर तथा बीज उत्पादन 10 से 12 किग्रा प्रति हेक्टेयर डोडा चूरा 9 से 10 कुंटल एवं मार्फिन की मात्रा 12 से 13% तक प्राप्त की जा सकती है.

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