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Coriander farming – धनिया की खेती की पूरी जानकारी (हिंदी में)

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धनिया की खेती (Coriander farming) की पूरी जानकारी

धनिया की खेती (Coriander farming) की पूरी जानकारी

नमस्कार किसान भाईयों, धनिया की खेती (Coriander farming) भारत में प्राचीन काल से मसाले के लिए की जा रही है. मसालों के उपयोग में इसका पहला स्थान है. इसका उपयोग मुख रूप से सब्जी में किया जाता है. किसान भाई इसकी खेती कर अच्छा लाभ कमा सकते है. इसलिए गाँव किसान (Gaon Kisan) आज अपने इस लेख में धनिया की खेती (Coriander farming) की पूरी जानकारी देगा, वह भी अपनी भाषा हिंदी में. जिससे किसान भाई इसकी अच्छी उपज प्राप्त कर सके. तो आइये जानते है धनिया की खेती (Coriander farming) की पूरी जानकारी-

धनिया के फायदे 

धनिया के दानों का उपयोग सब्जी मसाले के रूप में किया जाता है. इसके दानों में वाष्पशील तेल के कारण भोज्य पदार्थ को स्वादिष्ट एवं सुगन्धित बनाता है. पिसा धनिया करी पाउडर का मुख्य अंश है. इसको साबुत या पीसकर अचार, सॉस, मिठाइयों (कन्फेक्सनरी) आदि खाद्य पदार्थ को सुगन्धित करने के काम में लेते है. दानों के वाष्पशील तेल को आसवन विधि से निकाल कर सुंगंधित द्रव्य (परफ्यूम) व खुशबूदार साबुन बनाने के काम में लेते है. इसका तेल चॉकलेट, कैंडी, सीलबंद भोज्य पदार्थ, सूप व मदिरा आदि को सुगन्धित करने में उपयोग किया जाता है.

इसके वाष्पशील तेल में करीब 26 प्रतिशत हाइड्रोकार्बन व शेष ऑक्सीजन युक्त यौगिक होते है. जिनमें लीनोलिन व कोंड्रीयोल मुख्य है. धनिये के दानों में व पत्तियों में विटामिन ए प्रचुर मात्रा में पाया जाता है. धनिया के सूखे बीजों में 11.2 प्रतिशत नमी, 12.1 प्रतिशत एल्ब्यूनाड, 16.1 प्रतिशत वसा, 21.5 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट, 32.6 प्रतिशत रेशे व 4.4 प्रतिशत भस्म पायी जाती है. धनिया से वाष्पशील तेल निकालने के बाद बाकी बचा हुआ अवशेष जानवरों को खिलाया जाता है.

मसालों के अतरिक्त दवाओं के रूप में धनिये का उपयोग किया जाता है. धनिये से कई तरह की औषधियां बनायी जाती है. जिनका उपयोग अपच, दस्त, पेचिस, जुकाम, तथा मूत्र सम्बन्धी रोगों में किया जाता है. एलोपैथिक दवाओं में भी इसके वाष्पशील तेल का उपयोग उनकी बदबू कम करने के लिए किया जाता है.

उत्पत्ति एवं क्षेत्र 

धनिये का वैज्ञानिक नाम कोरिएन्ड्रम सेटाइवम (Coriandrum sativum L.) है. यह अम्बेलीफेरा कुल का पौधा है. इसकी उत्पत्ति भूमध्य सागरीय (मेडिटेरियन) क्षेत्र में हुई है. यह मोरक्को, रूमानिया, फ़्रांस, स्पेन, इटली, हॉलैंड, यूगोस्लाविया, सोवित रूस, भारत व मिस्र आदि देशों में मुख्य रूप से उअगायी जाती है.

भारत में इसकी खेती मुख्य रूप से राजस्थान, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, तमिल नाडु, बिहार, उत्तर प्रदेश, तथा कर्नाटक में की जाती है. धनिये की हरी पत्ती के लिए इसे भारत के सभी राज्यों में उगाया जाता है.

जलवायु एवं भूमि  

धनिया की खेती उष्ण एवं मध्य जलवायु वाले क्षेत्र जहाँ तापमान अधिक न हो और वर्षा भी सामान्य होती हो सफलता पूर्वक की जा सकती है. शुष्क और ठंडा मौसम इसकी अधिक उपज के लिए अनुकूल रहता है. पाले वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए अनुकूल नही होते है. दाने बनते समय अधिक तापमान व तेज हवा इसकी उपज पर विपरीत प्रभाव डालते है.

धनिये की खेती सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है. लेकिन सिंचाई का उचित प्रबंध होना चाहिए. भूमि में जीवांश पर्याप्त मात्रा में होने से इसकी उपज अच्छी होती है. क्षारीय एवं बलुई मिट्टी, हल्की मिट्टी इसके लिए उपयुक्त होती है. भूमि का पी० एच० मान 6.5 से 7.5 के बीच उपयुक्त होता है.

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उन्नत किस्में (Coriander farming)

धनिया की किस्मों का चयन स्थानीय किस्मों का करना चाहिए. फिर भी कुछ उन्नत किस्में निम्नवत है-

  1. गुजरात धनिया – 1 – यह किस्म गुजरात राज्य के क्षेत्रों में बोई जाती है. इसका प्रतिपादित वर्ष 1974 है. धनिये की इस किस्म में बीज बड़ा, शाखाएं अधिक एवं हरे रंग की व पैदावार भी अधिक होती है. यह लगभग 112 दिन में तैयार हो जाती है. इसकी उपज लगभग 1100 टन प्रति हेक्टेयर है.
  2. को – 1 – यह किस्म तमिलनाडु राज्य के क्षेत्रों में बोई जाती है. यह किस्म लगभग 110 दिन में तैयार हो जाती है. इस किस्म को 1981 में कोयम्बटूर के टी० एन० ए० यू० द्वारा विकसित की गयी है. इसके पौधे लम्बे, पत्तियों की अधिकता, बीज व पत्तियों दोनों हेतु उपयुक्त होती है. इसकी औसत उपज लगभग 500 टन प्रति हेक्टेयर होती है.
  3. आर० सी० आर० – यह किस्म राजस्थान राज्य के क्षेत्रों में के लिए उपयुक्त है. यह किस्म लगभग 130 से 140 दिन में तैयार हो जाती है. इस किस्म को 1988 में राजस्थान के जोबेनर के आर० ए० यू० राज० द्वारा विकसित किया गया था. इस किस्म का पौधा सीधा, लंबा, गोल व बीज छोटे होते है. तथा या उकठा रोग प्रतिरोधी किस्म है. इसकी औसत लगभग उपज 1200 टन प्रति हेक्टेयर है.
  4. राजेंद्रा स्वाति – धनिये की यह किस्म बिहार राज्य के क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है. यह किस्म 100 दिन में तैयार हो जाती है. इस किस्म को 1988 में ढोली आर० ए० यू० बिहार में विकसित किया गया.  इसके पौधे मध्य लम्बाई मिश्रित खेती हेतु उपयुक्त, इससे अधिक वाष्पतेल प्राप्त होता है. यह तना सूजन बीमारी से प्ररोधी किस्म है इसकी औसत उपज लगभग 1200 से 1400 टन प्रति हेक्टेयर तक है.
  5. साधना – धनिया की यह किस्म आन्ध्र प्रदेश राज्य के क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है. इस किस्म को 1989 में गुंटूर ए० पी० ए० यू० द्वारा विकसित किया गया है. इसके पौधे बारानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त होते है एवं चैंपा व बरुथी रोगों से प्रतिरोधी होते है.

खेत की तैयारी (Coriander farming)

धनिये की खेती की अच्छी उपज के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करके एक या दो जुताई देशी हल या कल्टीवेटर चलाकर कर ले. हर जुताई के बाद पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरी और समतल बना लेना चाहिए. भूमि से जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए.

बुवाई का समय (Coriander farming)

धनिया की फसल उत्तर भारत में साल में एक बार और दक्षिण भारत में दो बार उगाई जा सकती है. उत्तर भारत में दिन के तापमान को देखते हुए धनिया की बुवाई 15 अक्टूबर से 15 नवम्बर तक करनी चाहिए. धनिया की बुवाई का उपयुक्त समय अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवम्बर का प्रथम सप्ताह तक उपयुक्त होता है. समय पर बुवाई करने से फसल की बढ़वार अच्छी होती है.

बीज, बीजोपचार व बुवाई 

बीज के आकार के अनुसार 10 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है. बुवाई से पहले बीज को पैरों से हल्का दबाकर दो भागों ने विभाजित कर लेते है. बीज को विभाजित करने के बाद बाविस्टीन 1.0 ग्राम प्रति किग्रा० या एग्रोसोन जी० एन० या अन्य पारायुक्त कवकनाशी दवा के 2.0 ग्राम प्रति किग्रा० से बीजों को उपचारित करते है.

धनिये की बुवाई छिटकवाँ या पंक्ति विधि से कर सकते है. पंक्ति विधि से बुवाई करने से इसकी उपज अच्छी व सस्य क्रियाएं करने में आसानी होती है. इसमें पंक्ति से पंक्ति के बीच की दूरी 30 सेमी० अंतर रखना चाहिए.

खाद एवं उर्वरक

धनिये अच्छी उपज के लिए जैविक खाद के अतरिक्त उर्वरकों का भी प्रयोग करना चाहिए. खेत की तैयारी के समय पहली जुताई के दौरान 15 से 20 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी हुई खाद या कम्पोस्ट खाद देनी चाहिए. इसके अलावा 30 किग्रा० नाइट्रोजन, 30 फास्फोरस एवं 20 किग्रा पोटाश प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए.

सिंचाई (Coriander farming)

धनिये की अधिकतर खेती बारानी होती है. सिंचित फसल में धनिया की किस्म, भूमि की जल-धारण शक्ति व मौसम के आधार पर अंकुरण के पश्चात 4 से 6 सिंचाइयों की आवश्यकता पड़ती है. धनिया की फसल को बढवार, पुष्प आने व दाने बनते समय भूमि में उपयुक्त नमी होनी चाहिए.

खरपतवार नियंत्रण 

धनिया की फसल की अच्छी उपज के लिए खरपतवारो का नियंत्रण करना जरुरी है. शुरुवात में इसकी फसल की बढवार धीमी होती है. इसकी बारानी फसल में 30 से 45 दिन बाद निराई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है. लेकिन सिंचित फसलों में दो निराई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है. पहली 30 से 45 दिन पर व दूसरी 45 से 60 दिन बाद करनी चाहिए. निराई-गुड़ाई से खरपतवार नष्ट होने के साथ-साथ भूमि में वायु संचार भी बढ़िया होता है. जिससे पौधों में अच्छी वृध्दि होती है.

कीट एवं रोग प्रबन्धन  

प्रमुख कीट एवं रोकथाम 

माहू कीट – धनिये की फसल पर फूल आते समय एवं बीज बनते समय माहू की का अधिक प्रकोप होता है जिससे उपज को भारी हानि पहुंचती है.

रोकथाम – इसकी रोकथाम के लिए 200 से 250 मिली० फस्फोमिडोन 85 ई० सी० को 500 लीटर पानी के घोल में घोलकर छिड़काव करना चाहिए.

प्रमुख रोग एवं रोकथाम 

उकठा रोग – यह रोग पौधे की जड़ में लगता है. जिससे हरा पौधा मुरझाकर सूख जाता है. वैसे यह रोग किसी भी अवस्था में लग सकता है. लेकिन इसका प्रकोप पौधे की छोटी अवस्था में अधिक होता है.

रोकथाम – धनिया के खेत को गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करनी चाहिए. बीज हमेशा रोग रहित फसल का ही बोना चाहिए. इसके अलावा धनिया के बीज को कैप्टान या सेरेसन से दो ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से शोधित करना चाहिए.

छछिया रोग – छछिया रोग लगने की प्रारंभिक अवस्था में पौधों की पत्तियों व टहनियों पर सफ़ेद चूर्ण लग जाता है. अगर इस रोग की समय पर रोकथाम न की जाय तो यह पूरे पौधे में फ़ैल जाता है. पत्तियों का हरापन नष्ट होकर पत्तियां सूख जाती है.

रोकथाम – इसकी रोकथाम के लिए 1.5 किलोग्राम घुलनशील गंधक का घोल अथवा 20 से 25 किलोग्राम गंधक का चूर्ण प्रति हेक्टेयर फसल पर छिडके. इसके अतरिक्त कैराथेन एल० सी० 500 मिली० अथवा कैलेक्सीन 750 मिली० दवा का घोल प्रति हेक्टेयर छिड़काव करने से इसको रोका जा सकता है.

तने की सूजन – धनिये की इस बीमारी में पौधे के तने पर सूजन आ जाती है. जिससे पौधा नष्ट हो जाता है. उपज को हानि पहुंचती है.

रोकथाम – इस बीमारी से बचने के लिए बीज को उपचारित करके बोना चाहिए. इसके अलावा रोग प्रति रोधी किस्मों का चुनाव करना चाहिए.

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कटाई (Coriander farming)

धनिया की फसल किस्म, स्थानीय मौसम, बुवाई के समय व सिंचाई की व्यवस्था के अनुसार 90 से 135 दिन में पक कर तैयार हो जाती है. मुख्य छत्रक पर जैसे ही दाने पीले पड़ने लगे, फसल की कटाई कर लेनी चाहिए. कटाई में देरी से दानों का रंग खराब हो जाता है.

धनियाँ के कटे हुए पौधों की छोटी-छोटी पूलियां बांधकर उलटा सुखाना चाहिए. जिससे धूप सीधी न लगे. इस पर सीधी धूप पड़ने से रंग खराब हो जाता है. हो सके तो पूलियों को छाया में सुखाना चाहिए. सुखने के उपरांत इन पूलियो को पीटकर दाना अलग कर लेते है.

उपज 

धनिये की फसल की उपज असिंचित क्षेत्रों में 4.6 से 7.0 कुंटल प्रति हेक्टेयर एवं सिंचित क्षेत्रों में 6.0 से 10 कुंटल प्रति हेक्टेयर तक आसानी से प्राप्त की जा सकती है. समुचित कृषि प्रक्रियाएं अपना कर धनिये की 20 कुंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त की जा सकती है.

निष्कर्ष 

किसान भाईयों उम्मीद है गाँव किसान (Gaon Kisan) का धनिया की खेती (Coriander farming) से सम्बन्धित इस लेख से सभी जानकरियां मिल पायी होगी. गाँव किसान (Gaon Kisan) द्वारा धनिया के फायदे से लेकर इसकी उपज तक की सभी जानकारियां दी गयी है. फिर भी धनिया की खेती (Coriander farming) से सम्बन्धित आपका कोई प्रश्न हो तो कम्नेट बॉक्स में कम्नेट कर पूछ सकते है. इसके अलावा यह लेख आपको कैसा लगा कमेन्ट कर जरुर बताएं. महान कृपा होगी.

आप सभी लोगो का बहुत-बहुत धन्यवाद, जय हिन्द.

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