Chameli fool ki kheti in Hindi | चमेली की खेती कैसे करे ?
भारत में चमेली के फूलों की खेती (Chameli fool ki kheti in Hindi) काफी बड़े स्तर पर की जाती है.क्योकि सुगंध उद्योग की द्रष्टि से उपयोगी फूलों में चमेली के पौधे का प्रमुख स्थान है. इसके फूल का उपयोग इत्र, तेल, मालाएं, गजरे तथा खाने में प्रयुक्त होने वाल सत बनाने में बड़े स्तर पर किया जाता है.
इसके अलावा चमेली के फूल का उपयोग घरेलू स्तर पर, धार्मिक स्तर पर, शुभ-अशुभ अवसरों पर, वातावरण तथा परिवेश को सुगन्धित बनाने के भी प्रतिदिन किया जाता है.
दक्षिण भारत में इस फूल का कुछ अधिक महत्व है. वहां की स्त्रियाँ इस फूल का प्रयोग स्वयं को सजाने से लेकर घर तथा वातावरण को सुगन्धित बनाने के लिए प्रतिदिन की जाती है.
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसकी खूब मांग रहती है. चमेली के ताजे फूलों का निर्यात पडोसी देशों को बड़े पैमाने पर किया जाता है. जिसमें से श्रीलंका और सिंगापुर प्रमुख देश है.
इसके फूलों से बने इत्र एवं तेल का निर्यात जापान, अमेरिका, अरब देशों तथा यूरोपीय देशों को खूब किया जाता है. देश में सबसे ज्यादा चमेली की खेती तमिलनाडु में की जाती है.
चमेली का वानस्पतिक विवरण
चमेली का वानस्पतिक (Botanical name) नाम जैसमिनम जाति (Jasminum spp) है. इसका पौधा ओलिएसी (Oleaceae) परिवार (Family) से आता है.
इसके प्रचलित नाम मुगोही,सूनिका, जूही, उमवस्था, मल्लिका, वन वल्लिका, बेला, मोगरा, चंबा, मोतिया, गुन्डूमल्ली आदि नामों से जाना जाता है.
मुख्य प्रजातियाँ एवं उनकी किस्मों का विवरण
- जैसमिनम ग्रेंडीफ्लोरम (Jasminum grandiflorum)
इस प्रजाति के फूल 6 से 7 बजे सुबह खिलते है. फूल सफ़ेद व सुंगधित है. तथा पुष्पन ग्रीष्मकाल में होता है. बाह्यादल के दांत 0.75 सेमी० लम्बे होते है. पंखुड़ियों की नलिका 1.25 सेमी० तक लम्बी और उनके अग्रभाग सितारे के आकार के होते है. पौधा सीधा बढ़ने वाला, झाड़ीदार या आरोही प्रकृति का होता है. शाखाएं कोणीय तथा बेलदार होती है. पत्तियां विपरीत क्रम में तथा 5 से 7 पर्णवाली होती है. इस प्रजाति के पौधे मुख्य रूप से हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाते है. इस प्रजाति की निम्न मुख्य किस्में विकसित की गई है. इस प्रजाति की निम्न मुख्य किस्में विकसित की गई है –
- जे०जी० 1 – इस किस्म के फूल आकार में बड़े होते है. औसत फूलों की पैदावार 6793 किग्रा० प्रति हेक्टेयर होती है. फूलों में 0.29 प्रतिशत इत्र पाया जाता है. तथा एक हैक्टेयर से औसत 19.70 कि०ग्रा० इत्र प्राप्त होता है.
- जे०जी० 2 – इस किस्म के फूल आकार में छोटे होते है. तथा गुच्छों में फूलते है. फूलों की औसत पैदावार 4329 कि०ग्रा० प्रति हेक्टेयर फसल से औसतन 13.85 कि०ग्रा० इत्र प्राप्त होता है.
- जे०जी० 3 – इस किस्म के पौधे झाड़ीनुमा होते है. उन पर माध्यम आकार के फूल आते है. फूलों की औसत पैदावार 1044 कि०ग्रा० प्रति हेक्टेयर होती है. व फूलों में 0.29 प्रतिशत इत्र पाया जाता है. इत्र का औसत उत्पादन 29.42 कि०ग्रा० प्रति हेक्टेयर है. पैदावार की द्रष्टि से यह एक उत्तम किस्म मानी जाती है.
- जे०जी० 4 – इस किस्म के फूल आकार में बड़े होते है. फूलों की औसत पैदावार 6280 प्रति हेक्टेयर तक हो जाती है.
- जे०जी० 6 – इस किस्म के फूल बड़े आकार में होते है. लेकिन इनमें इत्र 0.25 प्रतिशत तक ही पायी जाती है. जो अन्य किसी किस्मों की तुलना में कम है. फूलों की औसत पैदावार 8322 किग्रा० प्रति हेक्टेयर है. तथा इत्र लगभग 20.81 किग्रा० प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है.
- सेलेक्शन 10 – इस किस्म के फूल आकर में छोटे-छोटे होते है. लेकिन इनमें इत्र की मात्रा 0.36 प्रतिशत होती है. जो कि अन्य किस्मों की तुलना में काफी अधिक होती है. फूलों की औसत पैदावार 11000 किग्रा० तक हो जाती है. तथा इत्र का औसत उत्पादन लगभग 39.36 किग्रा० तक हो जाता है. इसलिए पुष्पोत्पादन एवं इत्र औसत उत्पादन के द्रष्टिकोण से यह एक प्रमुख किस्म है.
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जैसमिन औरीकुलेटस (Jasminum auriculatum)
यह सीधा बढ़ने वाला झाड़ीदार या आरोही प्रकृति का पौधा होता है. जिसमें शाखाएं कोणीय तथा फूल गुच्छों में व बेलदार होते है.इसके फूल सफ़ेद और सुगंधित होते है. यह प्रजाति पश्चिम बंगाल तथा दक्षिण भारत में अधिक पाई जाती है. इस प्रजति से मुख्य प्रकार की निम्न किस्में विकसित की गयी है.
- एल०पी० – इस किस्म के फूल मध्यम आकार के होते है. लेकिन फूलों का औसत उत्पादन 4733 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक पाया जाता है. फूलों में लगभग 0.29 प्रतिशत इत्र पाया जाता है. तथा प्रति हेक्टेयर 14.20 किग्रा० इत्र का उत्पादन होता है.
- एल० आर० – इस किस्म के फूल मध्यम आकार में बड़े होते है. तथा संख्या में 6 से 9 के गुच्छों में आते है. फूलों का औसत उत्पादन 880 किग्रा० प्रति हेक्टेयर होता है. फूलों में 0.34 प्रतिशत इत्र पाया जाता है. और औसत इत्र 29.93 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक प्राप्त होता है.
- एस० पी० – इस किस्म के फूल आकार में छोटे-छोटे तथा वे 5 से 7 संख्या के गुच्छों में आते है. फूलों का औसत 0.36 प्रतिशत इत्र होता है. तथा इत्र का औसतन उत्पादन 18.35 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक होता है.
- एस० आर० – इस किस्म के फूल आकार में बड़े होते है. फूलों का औसत उत्पादन 9152 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक पायी जाती है. फूलों में इत्र 0.28 प्रतिशत पाया जाता है तथा इत्र का औसतन उत्पादन 25.63 किग्रा० प्रति हेक्टेयर होता है.
- पी०एम० – इस किस्म के फूल आकार में बड़े होते है. फूलों का औसत उत्पादन 7089 किग्रा० प्रति हेक्टेयर है. फूलों में 0.29 प्रतिशत इत्र पाया जाता है. तथा इत्र का औसत उत्पादन 20.56 किग्रा० प्रति हेक्टेयर पाया जाता है.
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जेसमिनम सैमबैक (Jasminum sambac)
इस प्रजति को वैसे तो साधारणतया बेला कहा जाता है. इसे अरबी चमेली के नाम से जाना जाता है. यह प्रजति तमिलनाडु, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश में काफी प्रचलित है. मूलतः इसका जन्म स्थान दक्षिण भारत माना जाता है. लेकिन कुछ वैज्ञानिक इसका जन्म स्थान अरब देश बताते है. इसका पौधा आरोही प्रवृत्ति का होता है. पत्तियां विपरीत क्रम में व्यवस्थिति होती है. और छूने पर चमड़े के समान कड़ी एवं चमकदार प्रतीत होती है. इसके पर्णवृंत घुमावदार होते है. इस पर सामान्यतया 3 से 12 तक सफ़ेद सुगन्धित फूलों के गुच्छे आते है.फूलों में पंखुडियां की कई पत्तियां पाई जाती है. जो सूखने से पहले बैंगनी रंग की हो जाती है. इस प्रजाति से अनेक उत्तम किस्में विकसित की गई है जो इस प्रकार है –
- डबल मोगरा – इस किस्म के फूल आकार में बड़े होते है. परन्तु फूलों का उत्पादन केवल 2929 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक पाया गया है. फूलों में इत्र की मात्रा 0.14 प्रतिशत तक पायी जाती है. तथा इत्र का औसत उत्पादन 4-10 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक होता है. पौधा अधिक फैलने वाला होता है. तथा मुख्य रूप से ग्रीष्म काल में फूलता है.
- गुन्डूमल्ली – इस किस्म के फूल मध्यम आकार के होते है. फूलों का कुल उत्पादन 6250 किग्रा० प्रति हेक्टेयर होता है. फूलों में इत्र की मात्रा 0.19 प्रतिशत तक पायी जाती है. जो अन्य किस्मों की तुलना में सबसे अधिक होती है. इत्र का औसत उत्पादन 11.38 किग्रा० प्रति हेक्टेयर होता है. जोकि इस प्रजाति की अन्य किस्मों की तुलना में सबसे अधिक है.
- इरुबटबी – इस किस्म के फूल आकार में बड़े होते है. और इसकी औसत पैदावार 6250 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक पायी गयी है. फूलों में इत्र की मात्रा 0.14 प्रतिशत की होती है. तथा इत्र का औसत उत्पादन 9.17 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक होता है.
- मदन वन – इस किस्म के फूल आकार में बड़े, सफ़ेद एवं मध्यम सुगंधित होते है. इसके फूलों का कुल उत्पादन केवल 739 किग्रा० प्रति हेक्टेयर है, जो कि अन्य विकसित किस्मों की तुलना में बहुत कम है. फूलों में 0.16 प्रतिशत इत्र होता है. तथा इत्र का औसत उत्पादन 1.18 किग्रा० प्रति हेक्टेयर तक होता है.
- रामवनम – इस किस्म के फूल आकार में छोटे होते है. लेकिन उत्पादन केवल 1133 किग्रा० प्रति हेक्टेयर है. इत्र केवल 0.12 प्रतिशत होता है. जो कि बहुत कम है. इत्र का औसत उत्पादन केवल 1.36 किग्रा० प्रति हेक्टेयर है.
- सिंगल मोगरा – इस किस्म के फूल आकार में छोटे होते है. तथा फूलों का औसत उत्पादन केवल 4706 किग्रा० प्रति हेक्टेयर होता है. फूलों में इत्र की मात्रा 0.17 प्रतिशत होती है. तथा इत्र का औसत उत्पादन 8.0 किग्रा० प्रति हेक्टेयर है.
खेती के भूमि एवं तैयारी
आमतौर पर चमेली की खेती किसी भी प्रकार की भूमि में की जा सकती है.लेकिन उत्तम पुष्प उत्पादन हेतु 6.5 से 7.5 पी०एच० मान वाली भूमि, जिसमें नाइट्रोजन पर्याप्त मात्रा हो, सिंचाई व जल निकास के उचित साधन हो व किसी तरह की कड़ी सतह न हो, उत्तम समझी जा सकती है. अच्छी पैदावार व इत्र की अधिकतम मात्रा के लिए स्थान का छाया रहित होना अति आवश्यक है.
चमेली की खेती बलुई व मटियार भूमि की तुलना में दोमट भूमि में इसकी पैदावार अधिक मिलती है. इसके अलवा सिंचाई एवं जल निकास की उचित सुविधाएँ हो व पर्याप्त मात्रा में उर्वरक दिए जाएँ, तो कमजोर एवं अधिक पी०एच० मान वाली भूमियों में भी चमेली की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है.
भूमि की तैयारी के पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से की जानी चाहिए. तथा यदि संभव हो सके तो कुछ समय के लिए जुताई की गई भूमि को तेज धूप में सूखने के लिए छोड़ दे. जिससे जमीन में मृदोढ कीट एवं बीमारियों की रोकथाम की जा सके.
इसके बाद किसान भाई हैरों या देशी हल से 5 से 6 जुताईयाँ करनी चाहिए. खेत को खेती के उपयुक्त बनाना अति आवश्यक होता है. अतः इसके लिए प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगना जरुरी होता है. जिससे खेत के ढेले टूट जाए और मिट्टी समतल तथा भुरभुरी हो जाए.
इसके उपरांत खेत से पुरानी फसलों के अवशेषों को निकाल कर पूरी तरह से सफाई कर देनी चाहिए.इसके अलावा खेत की आखिरी जुताई के 10 से 15 दिन पूर्व 200 से 250 कुंतल गोबर की सड़ी खाद खेत में डालना काफी लाभदायक होता है.
प्रवर्धन कैसे करे ?
चमेली में प्रवर्धन की दब्बा विधि पर्याप्त प्रचलित है. उत्तरी भारत में प्रवर्धन इस विधि से जून-जुलाई में तथा दक्षिणी भारत में जून से दिसम्बर तक किया जाता है. दब्बा विधि में पुरानी शाखा को एक वर्ष तक 10 से 15 सेमी० गहरी जमीन में दबा दिया जाता है. जमीन के नीचे दबे हुए पौधे के भाग में छोटे से चाकू से चीरा लगा दिया दिया जाता है. जिसमें शीध्र ही जड़े बनना प्रारंभ हो जाती है. जिस समय चीरा लगाएं, तब भूमि में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है. 90-120 दिन में नया पौधा बनकर तैयार हो जाता है. दोमट भूमि इस विधि से पौधे शीघ्र तैयार हो जाते है.
तने की कलमों से भी इसका प्रवर्धन किया जा सकता है. एक वर्ष पुरानी शाखा से 20 से 25 सेमी० लम्बी कलमें तैयार कर सकते है. और कलम के नीचे के भाग को सैरेडिक्स ए अथवा बी से उपचारित करना चाहिए.
इन कलमों को तैयार की गई क्यारियों में 45 x 45 सेमी० की दूरी पर लगाने के तुरंत बाद सिंचाई करनी चाहिए व आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई भी करनी चहिये. इस विधि से 100 से 125 दिन में नये पौधे तैयार हो जाते है.
कलमे तैयार करते समय यह सावधानी रखना अति आवश्यक है कि कलमें सीधी हो, पेन या पेन्सिल की मोटाई की तथा उसमें कम से कम तीन आँखे होनी चाहिए. तैयार एवं उपचारित कलमों को लगाने से पूर्व अधिक धूप लगानी चाहिए. तैयार कलमों का ⅔ भाग क्यारियों में जमीन में रोपना चाहिए. यदि क्यारियों में धूप व छाया, दोनों का प्रबंध है, तो अति उत्तम है. कलमें एक वर्ष पुरानी शाखाओं से बनाई जाय, तो अधिक उचित होगा.
गड्ढे कैसे तैयार करे
चमेली की बड़ी किस्मों के लिए 2 x 1.5 मीटर दूरी पर गड्ढे तैयार करने चाहिए तथा छोटी किस्मों के लिए 1.5 x 1.5 मीटर की दूरी पर गड्ढे तैयार करना चाहिए. गड्ढों का आकार 45 x 45 सेमी० होनी चाहिए. परन्तु गड्ढों को रोपाई करने से एक माह पूर्व ही तैयार कर लेना चाहिए. गड्ढों को खोदने के बाद कम से कम एक सप्ताह तक खुला रख कर अच्छी तरह धूप लगा देनी चाहिए. गड्ढों से निकाली गई मिट्टी में लगभग 20 किग्रा० गोबर की सड़ी खाद मिलाकर जमीन की सतह से 10 सेमी० उंचाई तक भर देना चाहिए. जिससे हलकी की सिंचाई कर देने से गड्ढे जमीन की सतह तक आ जाए. जिन क्षेत्रों में दीमक की समस्या हो तो उन क्षेत्रों में 5 ग्राम थाईमेट प्रति गड्ढे के हिसाब से मिट्टी में मिला देना चाहिए.
खाद और उर्वरक कितनी मात्रा में डाले ?
पौधों की अच्छी वृध्दि के लिए उचित अनुपात में खाद एवं उर्वरकों का समय से उपयोग करना चाहिए. यदि उर्वरकों का सही समय से उपयोग नही किया, तो फूलों का उत्पादन क्षमता में कमी आ जाती है. यदि नाइट्रोजन की मात्रा अधिक हो जाती है. तो पौधों की वृध्दि बहुत होती है. लेकिन पुष्प उत्पादन औसत से कम हो जाता है. गड्ढे में मिलाई गई 20 किलो गोबर की सड़ी हुई खाद के अलावा 362 किग्रा० अमोनिया सल्फेट, 842 किग्रा० सिंगल सुपर फ़ॉस्फेट तथा 66 किग्रा० म्यूरेट ऑफ़ पोटाश का मिश्रण बनाकर रोपाई के समय बराबर मात्रा में प्रत्येक गड्ढे में डाल देना चाहिए.
इसके बाद भी नीचे दी गयी खाद एवं उर्वरक की मात्रा के मिश्रण को प्रति पौधे की दर से जनवरी-मार्च, मई, जुलाई, सितम्बर व नवम्बर में भी कटाई-छंटाई के तुरंत बाद अच्छी तरह जमीन में मिला देना चाहिए.
खाद एवं उर्वरक | मात्रा |
गोबर की सड़ी खाद | 5 किग्रा० |
अमोनियम सल्फेट | 100 ग्राम |
सुपर फ़ॉस्फेट | 250 ग्राम |
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश | 70 ग्राम |
किसान भाई इस बात का ध्यान रखे उर्वरक और खाद का उपयोग करते समय थालों में नमी की पर्याप्त मात्रा होनी चाहिए. यदि नमी कम हो तो खाद एवं उर्वरक देने के तुरंत बाद हल्की सिंचाई करनी चाहिए.
पौधों की रोपाई कैसे करे ?
पौधों की रोपाई का सबसे उत्तम समय उत्तरी भारत के लिए जुलाई-अगस्त एवं जनवरी-फरवरी तथा दक्षिणी भारत के लिए जुलाई से दिसम्बर तक माना जाता है. पौधशाला में निरोग, अच्छी वृध्दि वाले पौधों को सावधानी के साथ निकाल लेना चाहिए. पौधे निकलते समय पिंडी नही टूटनी चाहिए. जो पौधे पहले से ही पॉलीथीन की थैलियों में तैयार किये जाते है. उनमे इस तरह की परेशानी नही होती है.
पौधाशाला से लाये गए पौधों को पहले से तैयार किये गए गड्ढों के केंद्र में रोपित कर देना चाहिए. ये गड्ढों के केंद्र पौधों की पिंडी के आकार के ही बनाने चाहिए.
रोपाई के बाद तुरंत हलकी सिंचाई करनी चाहिए. और एक सप्ताह बाद खेतों में घूमकर पौधों की देखरेख कर लेना चाहिए. यदि कुछ पौधे मर गये हो, तो उनके स्थान पर नये स्वस्थ पौधे रोप देना चाहिए. और हलकी सिंचाई कर देनी चाहिए.
रोपाई करते समय ध्यान रखने वाली बाते
- जिस विशेष किस्म की भूमि का चयन किया जाता है. उसी के पौधे उसमें रोप जाने चाहिए.
- पौधे लगाने की निर्धारित दूरी का ध्यान रखना चाहिए.
- जहाँ तक संभव हो सके, रोपण का काम सायंकाल के समय या जिस दिन बादल छायें हों, जो अधिक अच्छा है.
- पौधशाला में पौधे लगाते समय पिंडी टूटनी नही चाहिए.
- इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए पौधे निरोगी होने चाहिए.
सिंचाई
चमेली की खेती में सिंचाई का विशेष महत्व होता है. विशेष रूप से पुष्प आने के समय. ग्रीष्म कालीन मुसम में नमी का विशेष ध्यान रखना पड़ता है. इसके लिए उत्तरी भारत में एक सप्ताह के अन्दर और दक्षिण भारत में 4 दिन के अन्दर सिंचाई करनी चाहिए.
जमीन में पर्याप्त नमी रहने पर फूलों की संख्या एवं उनके वजन में वृध्दि होती है. वर्षा में सिंचाई की आवश्यकता नही होती है. लेकिन आवश्यकता से अधिक पानी भी खेत से निकलना जरुरी होता है. यदि वर्षा नही हो रही है. तो सिंचाई पौधों की कटाई के बाद करनी चाहिए. छंटाई के बाद तथा खाद एवं उर्वरक देने के बाद अवश्य ही विशेषकर जाड़ों के समय 10 से 15 दिन के अंतर पर सिंचाई जरुर करनी चाहिए.
पौधों के तनों के पास अधिक समय तक पानी नही भरा रहना चाहिए. अन्यथा पौधे सूखना प्रारंभ कर देते है.
निराई-गुड़ाई
पौधों की प्रारंभिक अवस्था में निराई करना अति आवश्यक है. जब और जैसे ही घास दिखाई दे. तुरंत निराई करनी चाहिए. विशेष रूप से पौधशाला में प्रत्येक सिंचाई के बाद हल्की सी निराई करनी चाहिए. जिससे उगे हुए खरपतावर नष्ट हो जायेगे तथा जड़ों एवं पौधों की वृध्दि भी अच्छी होती है.
बड़े पौधों की फावड़े से हल्की-हल्की गुड़ाई करनी चाहिए. कुल मिलाकर साल में 6 से 8 बार निराई-गुड़ाई करने से पौधों की वृध्दि भी अच्छी होती है. और पुष्पों की पैदावार में भी वृध्दि होती है.
किसान भाई बात का ध्यान रखे गुड़ाई करते समय पौधे के मुख्य तने के पास हल्की सी मिट्टी चढ़ा देने से सिंचाई का पानी सीधे तने के संपर्क में नही आयेगा और उसमें किसी तरह की बीमारी होने की आशंका कम हो जाती है. उर्वरक एवं खाद मिलाने के बाद निराई-गुड़ाई करना अति आवश्यक होता है.
कटाई-छंटाई
चमेली की खेती में कटाई-छंटाई करना एक मुख्य सस्य क्रिया है. जिसमें पौधे के आकार का निर्धारण होता है. तथा पुष्पोत्पादन में वृध्दि होती है.
कटाई-छंटाई का काम जनवरी, मार्च, जुलाई, सितम्बर तथा नवम्बर में करना चाहिए. कटाई करते समय सूखी, रोगग्रस्त शाखाओं एवं पत्तियों को निकालने के साथ-साथ नई वृध्दि वाली शाखाओं की भी कटाई की जाती है.
इस क्रिया से अच्छी नई शाखाएं निकलती है. जिन पर अच्छे फूल आते है. प्रत्येक कटाई-छंटाई के तुरंत बाद खाद एवं उर्वरक डालने के साथ-साथ सिंचाई करना भी उतना ही आवश्यक है. जिससे नई कलिकाएँ शीघ्र बन सके.
कभी-कभी कटे हुए भागों पर कवक का आक्रमण हो जाता है. इसके बचाव के लिए कटाई के बाद 0.2 प्रतिशत डाइथेन एम्-45 का घोल बनाकर एक छिडकाव करना चाहिए.
अंतरासस्यन फसलें
चमेली के पौधे लगभग दो वर्ष तक छोटे ही रहते है. अतः इनकी कतारों के बीच-बीच में जो स्थान होता है. उसमें अन्य फसलें उगाकर स्थान का सदुपयोग कर आमदनी बधाई जा सकती है. फसलों के के चयन के समय किसान भाई निम्न बैटन का ध्यान जरुर रखे.
- फसल के पौधे कम बढ़ने वाले होने चाहिए, अन्यथा वे चमेली के पौधों की वृध्दि को प्रभावित करगें.
- चयन की गई नई फसल की सिंचाई की आवश्यकता भी चमेली के पौधों की आवश्यकता से मिलती-जुलती होनी चाहिए. अतः धान इत्यादि फसलों का चयन न किया जाय.
- उगाई गई फसल के कीट एवं बीमारियाँ चमेली के पौधों को प्रभावित करने वाले न हो तो अधिक उचित होता है.
मुख्य रूप से चमेली के पौधों के बीच में दो वर्ष तक आलू, मटर, मूली, पालक, मेथी, गाजर, स्ट्राबेरी, टमाटर, बैंगन, मिर्च, खीरा, करेला इत्यादि फसलों को आसानी से उगाया जा सकता है. पर यह ध्यान रखा जय कि उगाई गई फसलों की शाखाएं या लताएँ चमेली के पौधों पर न फैले. ग्रीष्म काल में उर्द, मूंग, लोबिया, खरबूजा, तरबूज इत्यादि आसानी से उगाये जा सकते है.
चमेली में पुष्पन
पौध रोपाई के छः माह चमेली के पौधों पर फूल आना शुरू हो जाते है. तथा तीन वर्ष बाद वे फूलों की पूरी पैदावार देना शुरू कर देते है. चमेली के पौधों से अच्छा उत्पादन मिलने की औसतन उम्र 12 से 15 वर्ष है.
प्रायः मार्च से मई तक पुष्पोत्पादन कम होता है. जुलाई से सितम्बर तक पैदावार बढती है. और अक्टूबर से नवम्बर तक घटती है.
दक्षिण भारत में साधारण भूमि में फूलों का औसत उत्पादन पहले वर्ष लगभग 500 किग्रा मिलता है. तथा उसके बाद औसत उत्पादन 3500 किग्रा० प्रति हेक्टेयर होता है.
फूलों का उत्पादन, भूमि की किस्म, खाद एवं उर्वरक तथा सिंचाई के साधन पर काफी हद तक निर्भर करती है.
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फूलों की तुड़ाई
“इन्डोल” नामक पदार्थ का इत्र उद्योग में काफी महत्त्व है. यह एक उड़नशील पदार्थ है. तथा जैसे ही फूल खिलता है. वैसे ही यह 0.6 से 0.8 किग्रा० प्रति 100 फूल प्रति घंटा की दर से उड़ने लगता है. अतः पूर्णतः खिले हुए ताजे पुष्पों से ही इस इत्र का उत्पादन किया जाता है.
फूल सुबह के तेज प्रकाश आने से पूर्व पूर्ण खिली अवस्था में तोड़ लिए जय, तो अधिक उचित होता है. और तुरंत ही इत्र निकलने की प्रक्रिया भी शुरू कर लेनी चाहिए. जैसे-जैसे फूलों की तुड़ाई देर से की जाती है, वैसे-वैसे इत्र की मात्रा में कमी आती जाती है.
फूल तोड़ने के बाद उन्हें बारीक एवं नम कपड़े में बाँध कर रखना चाहिए. जिससे उन्हें वायु मिलती रहे व उनकी ताजगी बरकरार रहे.