स्टीविया की वैज्ञानिक खेती कैसे करे ? – Stevia Farming

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स्टीविया की वैज्ञानिक खेती
स्टीविया की वैज्ञानिक खेती कैसे करे ?

स्टीविया की वैज्ञानिक खेती कैसे करे ? – Stevia Farming

नमस्कार किसान भाइयों, स्टीविया को “मीठी तुलसी” भी कहा जाता है. यह चीनी से 300 गुना अधिक मीठी होती है. इससे से चीनी बनाई जा सकती है, जो मधुमेह रोगियों के लिए काफी फायदेमंद होती है. गाँव किसान (Gaon Kisan) आज अपने इस लेख में स्टीविया की वैज्ञानिक खेती कैसे करे ? की पूरी जानकारी देगा. जिससे किसान भाई इसकी खेती कर अच्छा मुनाफा कमा सके. तो आइये जानते है स्टीविया की वैज्ञानिक खेती कैसे करे ? की पूरी जानकारी-

स्टीविया के फायदे 

समान्य शक्कर से 25 से 30 गुणा अधिक मीठा होने के साथ-साथ स्टीविया की विशेषतया यह भी है कि यह पूर्णतया कैलोरी रहित है जिसकी वजह से मधुमेह के रोगियों के लिए शक्कर के रूप में इसका उपयोग पूर्णतया सुरक्षित है। इसके साथ-साथ ऐसे व्यक्ति जो कैलोरी कांशियस हैं तथा जो अपना वजन बढ़ने के प्रति काफी सचेत रहते हैं, उनके लिए भी इसका उपयोग सुरक्षित है, क्योंकि वर्तमान में प्रयुक्त हो रहे विभिन्न स्वीटनर्स मानव मात्र के लिए पूर्णतया सुरक्षित नहीं है अतः ऐसे में स्टीविया जो कि एक पूर्णतया हर्बल उत्पाद है तथा सभी प्रकार के साईड इफेक्ट्स से मुक्त है, शक्कर का एक उपयुक्त  प्रभावी विकल्प बनता जा रहा है।

यह उच्च रक्त चाप तथा रक्त शर्करा का भी नियमितिकरण करता है, इससे चर्म विकारों से भी मुक्ति मिलती है, यह एंटी वायरल तथा एंटी बैक्टीरियल भी है तथा दांतों एवं मसूड़ों की बीमारियों से भी मुक्ति दिलाता है। इस प्रकार देखा जा सकता है कि स्टीविया काफी अधिक औषधीय एवं व्यवसायिक महत्व का पौधा है जिसका व्यापक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय  बाजार हो सकता है।

क्षेत्र एवं विस्तार 

स्टीविया का वानस्पतिक नाम स्टीविया रिबोडियाना (Stevia rebaudiana (Bertoni) Bertoni) है. यह ऐस्टरेसी (Asteraceae) कुल का पौधा है. इसको हिंदी में मधुरपर्णी कहते है. इसकी उत्पत्ति मध्य पेरूग्वे में हुई है. विश्व में यह चीन, जापान, कोरिया आदि देशों में पाया जाता है. भारत में यह मुख्य रूप से पंजाब, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और आंध्रा प्रदेश आदि स्टीविया उत्पादक राज्य हैं।

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भूमि एवं जलवायु 

यह एक समशीतोष्ण जलवायु वाला पौधा है, यानी अर्धआद्र एवं अर्ध उष्ण जलवायु में इसकी खेती करना उचित रहता है. इसके अलावा भी कई तरह की जलवायु में इसकी खेती की जा सकती है. सेटेविया की खेती के लिए तापमान 5 डि‍ग्री से लेकर 45 डिग्री सेंटीग्रेट तक सही रहता है.

भूमि के मामले में इसकी खेती के लिए ऐसी मिट्टी की जरूरत होती है जिसमें अच्छी जल निकासी हो, क्योंकि पानी रुकने की वजह से इसकी जड़ें गलने का डर रहता है. इसके अलावा भूमि भुरभुरी और बलुई दोमट या दोमट होनी चाहिए. खेत समतल रहना जरूरी है. मिट्टी का पी.एच. मान 6 से 7 के बीच होना उचित रहता है.

प्रमुख किस्में 

विश्व भर में स्टीविया की लगभग 90 प्रजातियाँ विकसित की गिया है जो की संबंधित क्षेत्रों की जलवायु के अनुकूल विकसित की गई है। ऐसा पाया गया है कि विशेष रूप में दक्षिणी  भारतवर्ष में ऐसी भी प्रजातियां है जिनमें स्टीवियोसाइड का प्रतिशत मात्र 3.5% ही पाया गया है। क्योंकि स्टिवियोसाइड की मात्रा पर ही स्टीविया का मूल्य निर्धारण होता है अतः ऐसी प्रजाति की कृषि ही की जाना चाहिए जिसमें स्टिवियोसाइड की मात्रा ज्यादा से ज्यादा हो तथा जो अपने क्षेत्र की जलवायु के भी अनुरूप हो। वर्तमान में कृषिकरण की दृष्टि से स्टीविया की मुख्यतया तीन प्रजातियाँ प्रचलन में है।

1. एस० आर० बी०- 123 – स्टीविया की इस प्रजाति का उदगम स्थल  पेरूग्वे है तथा या भारतवर्ष के दक्षिणी पठारी क्षेत्रों के लिए ज्यादा उपयुक्त है। इस प्रजाति की वर्ष भर में 5 कटाइयाँ  ली जा सकती है तथा इस किस्म मे ग्लुकोसाइड की मात्रा 9 से 12% पाई गई है।

2. एस० आर० बी०- 512 – यह  प्रजाति ऊत्तरी भारत के लिए ज्यादा उपयुक्त है। इस प्रजाति 9 से 12% ग्लुकोसाइड पाए जाए हैं तथा वर्ष भर में 5 कटाइयाँ  ली जा सकती है।

3. एस० आर० बी०- 128 – कृषिकरण की दृष्टि से स्टीविया की या किस्म सर्वोत्तम मानी जाती है। इसमें 12% तक ग्लुकोसाइड पाए गए हैं। यह प्रजाति भारतवर्ष के उत्तरी क्षेत्रों के लिए भी उतनी ही उपयुक्त है जितनी की दक्षिणी भारतवर्ष के लिए।

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खेत की तैयारी 

स्टीविया की खेती एक पंचवर्षीय फसल के रूप में की जाती है। क्योंकि एक बार रोपण के पश्चात या फसल पांच वर्ष तक खेत में रहेगी अतः खेत की अच्छी प्रकार तैयारी करना आवश्यक होता है इसके लिए सर्वप्रथम खेत की अच्छी प्रकार गहरी जुताई करके उसमें 3 टन केंचुआ खाद अथवा 6 टन कम्पोस्ट खाद के साथ-साथ 120 किलोग्राम प्रॉम जैविक खाद मिला दी जाती है। खेत भूमि जनित रोगों तथा दीमक आदि से सुरक्षित रहे इस दृष्टि से प्रति एकड़ 150 से 200 किलोग्राम नीम की पिसी हुई खल्ली भी खेत तैयार करते समय खेत में मिला दी जाती है। स्टीविया का रोपण मेड़ो/बेड्स पर किया जाता है। मेढे बनाना विशेष रूप में इसलिए भी आवश्यक होता है ताकि वर्षा की स्थिति में अथवा सिंचाई करते समय पानी नालियों में से होते होते हुए निकल जाए तथा जल भराव की स्थिति न बने। जड़ों के विकास की दृष्टि से भी मेढे/बेड्स बनाना उपयुक्त रहता अहि। इस दृष्टि से खेत में 1 से 1.5 फीइत ऊँची मेढे बनाई जाती है। इन मेढ़ों की चौड़ाई लगभग 2 फीट रखी जाती है।

पौधों की रोपाई 

मेढे बना लेने की उपरान्त इन पर स्टीविया की पौध का रोपण किया जाता है। इस उद्देश्य से स्टीविया की टिश्युकल्चर विधि से तैयार की हुई पौध प्राप्त करके पौधे से पौधे के मध्य 6 से  9 इंच तथा कतार से कतार के मध्य 40- 40  सेंटीमीटर  की दूरी रखते हेतु रोपण कर दिया जाता है। यह रोपण करते समय मेढ़ के दोनों तरफ फैल सकें। इस प्रकार पौधे से पौधे के मध्य की दूरी 6 से 9 इंच तथा कतार से कतार के मध्य 40- 40 इंच रखते हेतु  स्टीविया का रोपण कर दिया जाता है इस प्रकार एक एकड़ में स्टीविया के लगभग 30 से 40000 पौधे रोपित किये जाते हैं। जहाँ तक स्टीविया के रोपण के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय का प्रश्न है, तो  ज्यादा गर्मी तथा ज्यादा सर्दी के समय को छोड़ कर इसकी रोपाई कभी भी की जा सकती है। इस प्रकार उत्तरी भारत के सन्दर्भ  में दिसम्बर-जनवरी एवं अप्रैल-मई को छोड़ कर इसकी रोपाई कभी भी की जा सकती है। वैसे इसकी रोपाई के लिए सर्वाधिक उपयुक्त माह है सितम्बर से नवम्बर तथा फरवरी से अप्रैल।

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सिंचाई 

स्टीविया की फसल को वर्ष भर निरंतर सिंचाई की आवश्यकता होती है। यूँ तो सिंचाई के लिए स्प्रिंकलर्स का उपयोग भी किया जा सकता है परन्तु स्टीविया के ली सिंचाई का सर्वोत्तम माध्यम है-ड्रिप विधि। अतः यथासंभव स्टीविया की सिंचाई हेतु ड्रिप विधि का ही उपयोग किया जाना चाहिए।

निराई-गुड़ाई 

स्टीविया की फसल की निरंतर सफाई करते रहना चाहिए तथा जब भी किसी प्रकार के खरपतवार फसल में उन्हें उखाड़ दिया जाना चाहिए। नियमित अंतरालों पर खेत की निकाई-गुड़ाई  भी करते रहना चाहिए। जिससे जमीन की नमी बनी रहे। खरपतवार नियंत्रण का कार्य हाथ से ही किया जाना चाहिए तथा इस हेतु किसी प्रकार के रासायनिक खरपतवार नाशी का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।

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खाद एवं उर्वरक

एक निरंतर वृद्धि करनेवाली फसल होने के कारण स्टीविया को काफी अधिक मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती ही। खेत तैयार करते समय डाली जाने वाले खाद के साथ-साथ प्रत्येक कटाई के उपरांत 500 किलोग्राम केंचुआ खाद तथा 30-30 किलोग्राम प्रॉम जैविक खाद पौधों के पास-पास डाल दी जानी चाहिए। क्योंकि स्टीविया साइड ग्रहण की जाने वाली वनस्पति है अतः यथा संभव फसल में किसी भी प्रकार के रासायनिक खादों अथवा टॉनिकों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए।

फसल कटाई 

रोपण के लगभग चार माह के उपरान्त स्टीविया की फसल प्रथम कटाई के लिए तैयार हो जाती है। कटाई का कार्य पौधों पर फूल आने के पूर्व ही कर लिया जाना चाहिए क्योंकि फूल आ जाने से पौधे में स्टिवियोसाइड की मात्रा घटने लगती है जिससे इसका उचित मूल्य नहीं मिल पाता। इस प्रकार प्रथम कटाई चार माह के उपरान्त तथा आगे की कटाइयाँ प्रत्येक 3-3 माह में आने लगती है। कटाई चाहे पहली हो अथवा दूसरी अथवा तीसरी, यह ध्यान रखा जाना आवश्यक है कि किसी भी स्थिति में कटाई का कार्य पौधे पर फूल आने के पूर्व ही हो जाए। कटाई करने की दृष्टि से पूरे पौधे को भी कटा जा सकता है तथा पत्तों को भी चुना जा सकता है। पूरा पौधा काट लेने के उपरान्त भी उसके पत्ते तोड़े जा सकता है। पत्तों को तोड़ लेने के उपरान्त उन्हें छाया में सुखाया जाना चाहिए। प्रायः 3-4 रोज तक छाया में सुखा लिए जाने पर पत्ते पूर्णतया नमी रहित हो जाते हैं तथा तदुपरान्त इन्हें बोरोन में पैक करके बिक्री हेतु प्रस्तुत कर दिया जाता है। जहां तक इनकी बिक्री का प्रश्न है तो स्टीविया के पत्ते भी बेचे जा सकते हैं, इनको पाउडर बनाकर के भी बेचा जा सकता है तथा इसका एक्सट्रैक्ट भी निकाला जा सकता है। वैसे किसान के स्तर पर इसके सूखे पत्तें बेचे जाना ही उपयुक्त होता है।

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उपज

एक बहुवर्षीय फसल होने के कारण स्टीविया की उपज में प्रत्येक कटाई के साथ निरंतर बढोत्तरी होती जाती है। हालांकि उपज की मात्रा काई कारकों जैसे लगाई गई प्रजाति, फसल की वृद्धि, कटाई का समय आदि पर निर्भर करता है, परन्तु चार कटाईयों  में प्रायः 2 से 4  टन तक सूखे पत्तों का उत्पादन हो सकता है। वैसे एक औसतन फसल से वर्ष भर से लगभग 2.5 टन सूखे पत्ते प्राप्त हो जाते है.

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