जायफल और जावित्री की खेती – Nutmeg and mace cultivation

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जायफल और जावित्री की खेती
जायफल और जावित्री की खेती

जायफल और जावित्री की खेती – Nutmeg and mace cultivation

नमस्कार किसान भाईयों, जायफल और जावित्री की खेती देश में प्राचीन काल की जाती रही है. जायफल और जावित्री वास्तव में जायफल वृक्ष से प्राप्त बीजों की गिरी तथा बीजोपांग है. जायफल वृक्ष के इन दोनों ही उत्पादों का प्राचीन समय से मसालों के रूप में उपयोग होता है. इसलिए गाँव किसान (Gaon Kisan) आज अपने इस लेख के द्वारा जायफल और जावित्री की खेती की पूरी जानकरी इस लेख से अपने देश की भाषा हिंदी में देगा. जिससे किसान भाई इस मसालों फसलों की अच्छी उपज ले सकते है. तो आइये जानते है जायफल और जावित्री की खेती की पूरी जानकारी –

जायफल और जावित्री के फायदे 

जायफल और जावित्री का उपयोग हमारी रसोई में मसालों के रूप में किया जाता है. जायफल का उपयोग जहाँ मिठास युक्त भोज्य पदार्थों में किया जाता है. वही जावित्री का उपयोग तीखे व खट्टे पदार्थों में अधिक होता है. मसालों के अलावा जायफल तथा जावित्री का उपयोग दवाओं के रूप में बहुत होता है. इसका उपयोग मुख्यतः आफरा, उल्टी, दस्त, जी मिचलाना, पेट दर्द व कमजोरी की अवस्था में दी जाने वाली दवाओं में होता है. नन्हे बच्चों को सर्दी जुकाम, पेट दर्द, आफरा, दस्त एवं यहाँ तक की न्युमोनिया के आक्रमण के समय जायफल व जावित्री की घूंटी देना आम प्रचलित दवा है.

इन दोनों की स्वाद वर्धक सौरभ का आधार इसमें पाया जाने वाला वाष्पशील तेल है. इस की तेल की मात्रा जायफल में 6 से 16 प्रतिशत व जावित्री में 4 से 15 प्रतिशत तक पाई गई है. जायफल में वाष्पशील तेल के अलावा प्रोटीन 7.5 प्रतिशत, ईथर निष्कर्ष 36.4, कार्बोहाइड्रेट 28.5 प्रतिशत, रेशे 11.6 प्रतिशत, खनिज पदार्थ 1.7 प्रतिशत तथा विटामिन भी पाए जाते है. जावित्री में भी जायफल के सामान ही प्रोटीन 6.5, ईथर निष्कर्ष 24.4 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेट 47.8 प्रतिशत, रेशे 3.8 प्रतिशत, खनिज पदार्थ 1.6 प्रतिशत तथा विटामिन्स पाए जाते है. धटिया किस्म के जायफल में ईथर निष्कर्ष की अधिक मात्रा होने से वसा निकल जाती है. जिसको जायफल बट्टर कहते है.

उत्पत्ति एवं क्षेत्र 

जायफल का वानस्पतिक नाम मिरिस्टिका फ्रेगरेंस (Myristica fragrans) है. यह माइरिसीसेसी (Myristicaceae) कुल का पौधा है. इसकी उत्पत्ति इंडोनेशिया के मोलुकास (Moluccas) हुई है. विश्व में यह चीन, ताइवान, मलेशिया, ग्रेनाडा, केरल, श्रीलंका और दक्षिणी अमेरिका में खूब पाया जाता है. भारत में इसकी खेती 1800 ई० से प्रारंभ हुई है. देश में इसकी खेती तमिलनाडु, केरल, असम आदि राज्यों में की जाती है.

जलवायु एवं भूमि 

जायफल को लौंग की तरह ही उष्ण-कटिबंधीय उष्ण व नम जवायु की आवश्यकता है. वृक्षों के समुचित विकास के लिए 24 से 33 डिग्री से० तापमान तथा 1500 से 3000 मि० मी० वार्षिक वर्षा की आवश्यकता होती है. जून-जुलाई में साफ़ व धूप वाले दिन जायफल व जावित्री को सुखाने के लिए महत्वपूर्ण होते है. जिन क्षेत्रों में इन दिनों सतत वर्षा वर्षा होती है. उसमें जायफल व जावित्री को सुखाना कठिन हो जाता है. जायफल के वृक्षों को समुद्र सतह से 1300 मीटर तक की उंचाई तक आसानी से उगा सकते है.

चिकनी दुमट व बलुई दोमट अथवा लाल लेटेराइट मिट्टी जिसमें प्रचुर मात्रा में ह्यूमस विद्यमान हो, जायफल की खेती के लिए उपयुक्त होती है. जिस भूमि में पानी भरा रहता हो, वह जायफल के लिए अनुपयुक्त होती है. अतः भूमि में जल निकास की उचित व्यवस्था आवश्यक हो.

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उन्नत किस्में 

भारत देश में जायफल की उन्नत किस्मों में निम्नवत किस्में है-

आई० आई० एस० आर० विश्वश्री 

जायफल की यह किस्म कालीकट भारतीय मसाला अनुसन्धान द्वारा तैयार की गयी है. इसकी उपज वृक्ष लगाने के 8 वर्ष पश्चात शुरू होती है. इसके एक पेड़ से लगभग 1000 फल पार्टी वर्ष प्राप्त हो जाते है.

केरलाश्री 

इस किस्म को दक्षिण भारत के राज्य तेमिलनाडु और केरल के उचित माना गया है. इसको क्लीकत कृषि विश्वविद्यालय द्वारा तैयार किया गया है. इसका वृक्ष रोपाई के लगभग 8 वर्ष पश्चात उपज देना प्रारंभ करता है.

खेत की तैयारी 

बाग़ लागे वाली खेत की भूमि को अच्छी तरह साफ़ करके तैयार कर लेना चाहिए. भूमि की मिट्टी पलटने वाले हल से या कल्टीवेटर से जुताई कर अच्छी तरह से पाटा लागकर भूमि को समतल व मिट्टी को भुरभरी कर लेना चाहिए.

इसके बाद भूमि पर 8 से 9 मीटर की दूरी पर 60 x 60 x 60 सेमी० आकार गड्ढे खोद लिए जाते है. इन गड्ढों में सतही मिट्टी तथा गोबर या कम्पोस्ट खाद 10 किलोग्राम प्रति गड्ढे की दर से मिलाकर भर देते है. और पानी डाल देते है जिससे मिट्टी नीचे बैठ जाए.

पौधा रोपण 

बीज द्वारा या कायिक विधियों द्वारा तैयार पौधों को इन तैयार गड्ढों के मध्य में रोपाई करते है. जायफल का पौधा लागने का सबसे उचित समय वर्षा ऋतु के शुरुवात का मौसम होता है.

पौध रोपण के बाद पौधों को छाया प्रदान करना आवश्यक है. साथ ही इनको समय-समय पर, विशेष कर गर्मियों के मौसम में पानी देना आवश्यक है. पौधों के बड़े होने पर सिंचाई देना जरुरी है. पौधे के बड़े होने पर सिंचाई देना जरुरी नही होता परन्तु यह लाभदायक अवश्य है. छाया व्यवस्था के लिए पौधों की रोपाई से पहले ही बागान में कर देनी चाहिए. छाया के लिए केले के पौधे को भी लगा सकते है.

खाद एवं उर्वरक  

खाद एवं उर्वरक के उपयुक्त मात्रा निश्चित करने की दिशा में कोई सार्थक परीक्षण नही किये गये है. परन्तु कुछ वृक्षों में खाद तथा उर्वरक देने से उनमे अतिशीघ्र बढ़ोत्तरी तथा उत्पादन प्राप्त हुआ है. जायफल के लिए पहले साल प्रति वृक्ष 20 ग्राम नाइट्रोजन, 18 ग्राम फ़ॉस्फोरस व 50 ग्राम पोटाश की सिफारिश की गयी है. इसकी मात्रा बढ़ाकर 15 वर्ष के पौधे के लिए 500 ग्राम नाइट्रोजन, 200 ग्राम फ़ॉस्फोरस व 1000 ग्राम पोटाश तक पहुंचा देना चाहिए. उर्वरक की पूर्ण मात्रा को दो समान भागों में बांटकर, एक भाग मानसून के आरंम्भ में मई-जून तथा दूसरे भाग को सितम्बर-अक्टूबर में देना चाहिए. इसके अलावा मानसून के शुरू में खाद देना लाभदायक होता है.

निराई-गुड़ाई 

जायफल की जड़े उथली होती है. अतः इसमें निरे-गुड़ाई करते समय इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए, कि जड़ों को नुकसान न हो. बागान को खरपतवार रहित रखने के लिए समय-समय पर उथली गुड़ाई-निराई करते रहना चाहिए.

तुड़ाई व संसाधन 

जायफल का वृक्ष 5 से 7 वर्ष की अवस्था में फल देना आरम्भ करता है. परन्तु यह अपनी पूर्ण उत्पादन क्षमता 15 से 20 वर्ष की अवस्था में ही प्राप्त कर सकता है. जो अगले 30 से 40 वर्ष तक चलती है. जायफल में फल, पुष्पन व परागन के 6 से 9 महीने बाद पककर तैयार होते है. वैसे तो इस वृक्ष में फल पूरे साल आते रहते है. परन्तु दिसम्बर से मई के महीनों में यह चरम सीमा तक पहुंचते है. जिसके अंदर लाल गुलाबी बीजोपांग (जावित्री) दिखने लगता है फल तुड़ाई के लिए यही अवस्था श्रेष्ठ है.

फल को तोड़कर इकठ्ठा करना अच्छा रहता है. परन्तु अधिकतर पके फलों को भूमि पर गिरने के बाद ही चुनकर इकट्ठा करते है. अगर फलों को भूमि पर अधिक समय तक पड़े रहने दिया जय तो उन पर कवक लग जाती है. जिससे जायफल व जावित्री का रंग बिगड़ जाता है. इसके बाद फलों को धूप में अच्छे प्रकार से सुखाना चाहिए. जहाँ पर वर्षा तथा बादलो के कारण पर्याप्त धूप न मिले वहां जायफल व जावित्री को सुखाने के लिए कृत्रिम ताप का उपयोग किया जाता है. जावित्री की पत्तियां 10 से 15 दिन में सूख जाती है. सूखने पर जावित्री चटकनी हो जाती है. तथा इसका रंग भूरा सा हो जाता है. जायफल के बीजों को सूखने 20 से 25 दिन का समय लग जाता है. पूरी तरह सूखने पर बीजों को हिलाने से खड़-खड़ की आवाज आने लगती है. सूखे बीजों के बाहरी सख्त खोल को लकड़ी या हथौड़े से तोड़कर जायफल अलग कर लेते है.

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उपज 

जायफल की उपज भूमि उर्वरकता, खाद, छाया तथा अन्य सस्य प्रक्रियाओं के अनुसार बदलती रहती है. परन्तु एक अच्छे वृक्ष से औसतन 1000 फल प्रति वर्ष प्राप्त हो जाते है.

निष्कर्ष 

किसान भाईयों उम्मीद है गाँव किसान (Gaon Kisan) के इस जायफल और जावित्री की खेती से सम्बंधित लेख से सभी जानकारियां मिल पायी होंगी. गाँव किसान (Gaon Kisan) द्वारा जायफल और जावित्री के फायदे से लेकर उपज तक की सभी जानकारियां दी गयी है. फिर भी इससे सम्बन्धित आपका कोई प्रश्न हो तो कम्नेट बॉक्स में कमेन्ट कर पूछ सकते है. इसके अलावा यह लेख आपको कैसा लगा कमेन्ट कर जरुर बताएं, महान कृपा होगी.

आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद, जय हिन्द.

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