चने के रोग कीट एवं प्रबन्धन – Gram Disease Pest Management

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चने के रोग कीट
चने के रोग कीट एवं प्रबन्धन

चने के रोग कीट एवं प्रबन्धन

नमस्कार किसान भाईयों चने के रोग कीट इसकी फसल को काफी हानि पहुंचाते है. यह देश की प्रमुख दलहनी फसल है. यह रबी मौसम में बोई जाती है. इस फसल को सरसों, गेहूं, जौ, अलसी इत्यादि फसलों के साथ बोया जाता है. आज गाँव किसान (Gaon Kisan) अपने इस लेख द्वारा चने के रोग कीट एवं उसने प्रबन्धन की पूरी जानकारी देगा अपने देश की भाषा हिंदी में. जिससे किसान भाई चने की फसल में होने वाले नुकसान से बच सके. तो आइये जानते है चने के रोग कीट एवं उनका प्रबन्धन कैसे करे-

चने के रोग कीट 

चने की फसल में बहुत ही कीट एवं रोगों का प्रकोप होता है इसलिए इसकी पैदावार प्रति हेक्टेयर कम रहती है. इस्ल्लिये इसकी खेती में निरंतर कमी आती जा रही है. खेती के सुधरे तरीके अपना कर एवं फसल का उचित प्रबन्धन द्वारा कीटों एवं बीमारियों से बचाकर सर्वाधिक उपज ली जा सकती है.

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चना की फसल के कीट

चने का कटुआ कीट 

चने का कटुआ, जिसकी गिडारें चिकनी एवं लिजलिजी होती है, पौधे को भूमि की सतह से थोड़ा ऊपर काटकर गिरा देती है. ढूँढने पर यह गिडारें कटे हुए पौधों एवं शाखाओं के पास ही ढेलों के नीचे छिपी मिलेगीं. चने की फसल पर उनका प्रकोप नवम्बर से फरवरी माह तक रहता है.

फली बेधक कीट 

यह चने का सर्वाधिक हानि पहुँचाने वाला कीड़ा होता है. इसकी केवल गिडार ही नुकसान करती है. गिडार सर अन्दर डालकर फली के दानों को खाती है. गिडार के शरीर का लगभग दो-तिहाई हिस्सा फली के बाहर लटकता रहता है. चने की विकसित हो रही फलियों के अतरिक्त यह पत्तियों, फूलों तथा कलियों को भी हानि पहुंचाती है. एक गिडार 30 से 40 फलियों को नष्ट करती है. इसकी गिडार पूरे साल किसी न किसी फसल जैसे अरहर, कपास, सूरजमुखी, मक्का, मूंगफली, टमाटर, इत्यादि पर पाई जाती है. पूर्ण विकसित गिडार लगभग 4 सेमी० लम्बी एवं पीलापन लिए हरे रंग की होती है. रंग बहुधा खाए जाने वाली फसल के रंग के पर भी निर्भर करता है.

दीमक  

इसका प्रकोप फसल की बुवाई के पश्चात शुरू हो जाता है. और पकने तक लगा रहता है. क्षतिग्रस्त पौधे जमीन पर गिर जाते है. और सूख जाते  है. बारानी खेती की दशा में दीमक का प्रकोप ज्यादा होता है.

चने का सेमीलूपर 

इस कीट की सूडी पत्तियों एवं फलियों को खाकर हानि पहुंचती है. सूडी हरे रंग की होती है. सूडी चलते समय कूबड़ की आकृति बनती है.

चना की फसल के रोग 

उखटा रोग 

यह रोग फ्यूजेरियम नामक फफूंदी से होता है. शुरुवात में पत्तियां पीली पड़ती है. तथा बाद में सूख जाती है. धीरे-धीरे पूरा पौधा पीला पड़कर सूखने लगता है. एवं जड़े काली पड़ जाती है. यह रोग फसल की किसी अवस्था पर आ सकता है. यदि प्रभावित पौधों की जड़ों को बीचों-बीच से फाड़कर देखा जाए तो आतंरिक तंतुओं का रंग हल्का भूरा या काला मिलता है.

एस्कोकाइटा ब्लाईट (चांदनी रोग)

यह बीमारी प्रायः फसल में फूल एवं पत्तियां बनने के समय आती है. अनुकूल परिस्थितियों में फल आने के पूर्व भी लग जाती है. इसका कारण एस्कोकाइटा रैबी नामक फफूंद है. पत्तियों पर गोल-गोल धब्बे पड़ते है. जिनका किनारा भूरा होता है. यह धब्बे तने एवं फलियों पर भी देखे जा सकते है. धब्बों के ऊपर काले रंग की छोटी-छोटी रचना दिखाई देती है. धब्बों के बढ़ने पर पहले पत्तियां बाद में पूरा पौधा मुरझा कर सूख जाता है.

ग्रे मोल्ड (धूसर फफूंद)  

यह रोग वोट्राइटिस सिनेरिया नामक फफूंद से होता है. फूलों का झड़ना एवं फलियों का न बनना प्रथम लक्षण है. कोमल टहनियां तंतुओं के सड़ने के कारण टूटकर गिर जाती है. रोगी पौधों पर लगने वाली फलियों में प्रायः दाने नही बनते है. यदि बनते है तो सिकुड़े होते है. ऐसे दानों पर भूरे व सफ़ेद रंग की फफूंद के तार देखे जा सकते है.

शुष्क जड़ सड़न रोग  

यह रोग राइजोक्टोनिया बटाटीकोला नामक फफूंद से होता है. सर्वप्रथम पत्तियां पीली-हरी दिखाई देती है. परन्तु गंभीर अवस्था में पीली पड़ कर झड़ जाती है. पौधों की जड़े गहरी भूरी हो जाती है. तथा पौधे ऊपर से नीचे की और सूख कर भूसी के रंग के हो जाते है.

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चने के रोग कीट का प्रबंधन 

चने के रोग कीट से फसल को बचने के लिए निम्न परिरोधी किस्मों की बुवाई भी कर सकते है-

रोग एवं कीट प्रतिरोधी किस्में
उकठा पूसा 212 , के० डब्ल्यू० आर० 108, जी 543, बी० जी०  244
एस्कोकाइटा ब्लाइट जी 146, बी० जी० 261
शुष्क जड़ सड़न के० जी० डी० 1168, एच० 355 आई० सी० सी० 6863 एवं 4935
चना फली बेधक पन्त सी० ई० 1, पी० जी० 90

इसके अलावा आप इन रोग कीटों से बाचाव के लिए निम्न उपाय कर सकते है-

  • गर्मी के मौसम में गहरी जुताई करे.
  • उचित जल प्रबन्धन एवं संतुलित मात्रा में उर्वरक का प्रयोग करना चाहिए. इससे कीटों एवं बीमारियों का प्रकोप कम होता है.
  • पंक्ति से पंक्ति व पौधे से पौधे के बीच उचित दूरी रखनी चाहिए.
  • फसल अवशेषों को कटाई के बाद नष्ट कर देना चाहिए.
  • चने की अगेती बुवाई करने से फली बेधक कीट का प्रभव कम होता है.
  • चने को सरसों, कुसुम, गेहूं तथा अलसी के साथ सह फसल के रूप में बोने से फली बेधक का आक्रमण कम होता है.
  • फिरोमोन प्रपंच विधि के द्वारा कीड़ों को एकत्रित कर नष्ट कर देना चाहिए.
  • नाशीजीवों एवं उनके प्राकृतिक शत्रुओं की संख्या का अनुपात 2:1 रखना चाहिए.
  • चिड़ियों के बैठने के लिए बांस पर लकड़ियाँ बाँध कर बीच में गाड़ दे.
  • फली बेधक कीट के नियंत्रण हेतु नीम आधारित एजाडिरेक्टिन 0.03 प्रतिशत का 2.5 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए.
  • चने की फली बेधक गिडारे एन० पी० वी० से काफी ग्रसित होती है. इस वाइरस को गिडारो के आर्थिक क्षति स्तर पार कर जाने पर 250 एल० ई० का छिड़काव चने पर प्रति हेक्टेयर की दर से करे. ऐसा छिड़काव 10 से 15 दिनों के अंतराल पर दो बार सूर्यास्त के समय करना चाहिए.
  • रसायनों का उपयोग तभी करना चाहिए, जब नाशजीवों की संख्या आर्थिक क्षति स्तर से ऊपर हो जाय और जैविक नियंत्रण कारक उसको नियंत्रित करने की अवस्था में न हो. फफूंद जनित रोगों के लिए मैन्कोजेब 2.5 किग्रा० प्रति हेक्टेयर की दर से तथा कीटों का नियंत्रण हेतु इन्डोसल्फान 1.25 लीटर या क्लोरपाइरीफ़ॉस 1.0 प्रति हेक्टेयर की दर से 700-800 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिये.

निष्कर्ष 

किसान भाईयों उम्मीद है गाँव किसान (Gaon Kisan) के इस लेख से चने के रोग कीट एवं प्रबन्धन की जानकारी मिल पायी होगी. फिर भी यदि आपका कोई प्रश्न हो तो कमेन्ट बॉक्स में कमेन्ट कर पूछ सकते है. इसके अलावा यह लेख आपको कैसा लगा कमेन्ट कर जरुर बताएं, महान कृपा होगी.

आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद, जय हिन्द 

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