मसूर के प्रमुख रोग : कैसे करे पहचान एवं रोकथाम
नमस्कार किसान भाईयों, भारत वर्ष में रबी की दलहनी फसलों में मसूर का प्रमुख स्थान है. परन्तु इसका उत्पादन तथा उत्पादकता बहुत कम है. जिसके विभिन्न कारणों में से लगाने वाली प्रमुख बीमारियों भी प्रमुख रूप से उत्तरदायी है. इसलिए गाँव किसान(Gaon Kisan) आज अपने इस लेख में मसूर के प्रमुख रोग (Major lentil diseases) के बारे में जानकारी देगा. जिससे इन रोगों से किसान भाई अपनी फसलों को बचाकर अच्छा उत्पादन कर सके. तो आइये जानते है मसूर के प्रमुख रोग (Major lentil diseases) तथा इसकी पहचान एवं रोकथाम कैसे कर सके-
मृदुरोमिल आसिता (Downy mildew disease)
रोग कारक
पेरोनोस्फेरा लेंटिस
रोग की पहचान
पत्तियों पर सबसे पहले हलके हरे से पीले निश्चित आकार के धब्बे बनते है. पत्ती की निचली सतह पर इन धब्बों के नीचे इस फफूंद की बढवार भूरे रंग की देखी जा सकती है. जिसके द्वारा बाद में पूरी पत्ती ढक जाती है. रोग ग्रसित पत्तियों में हरिमाहीनता आ जाने के कारण बाद में गिर जाती है. रोग की तीव्रता की दशा में पौधे छोटे हो जाते है. तथा पत्तियों के झुलस जाने के कारण उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
रोग चक्र
रोगकारक के बीजाणु प्रायः भूमि में तथा कभी-कभी बीज के साथ बने रहकर प्राथमिक निवेश द्रव्य का कार्य करते है.
रोग की रोकथाम
- इसकी रोकथाम के उचित फसल चक्र अपनाया जाय.
- बुवाई से पहले 2.5 ग्राम थीरम से प्रति किग्रा० बीज को शोधित करना चाहिए.
- खेत में रोग के लक्षण दिखने पर जिनेब अथवा मैंकोजेब की 2.0 ग्राम मात्रा की प्रति लीटर पानी की दर आवश्यक मात्रा में घोल बनाकर 8 से 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव किया जाय.
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चूर्णिल असिता (Powdery mildew)
रोग कारक
यह इरीसाइफी पालीगोनी नामक फफूंद से उत्पन्न होने वाला रोग है.
रोग की पहचान
यह रोग कम तापक्रम तथा अधिक नमी की दशा में अधिक लगता है. आरम्भ में पत्तियों के ऊपर हलके सफ़ेद पाउडर सा पूरी वायवीय भाग पर दिखाई पड़ता है. इस तरह के लक्षण पत्तियों पर भी दिखाई पड़ता है. बाद में रोग ग्रसित भाग लालिमा लिए हुए विशेष कर पत्तियां सूखकर गिर जाती है. रोग तीव्र अवस्था में रोगी पौधे हरिमाहीन, कुंचित और निश्यन्त्रित हो जाते है.
रोग चक्र
रोगकारक के बीजाणु मृदा में बने रहकर प्राथमिक निवेश का कार्य करते है.
रोग की रोकथाम
- रोग ग्रसित पौधों को इकठ्ठा करके जला देना चाहिए.
- उचित फसल चक्र अपनाया जाय.
- खेत में रोग के लक्षण दिखने पर घुलनशील गंधक की 3.0 ग्राम या कैराथेन की 1.25 मिली० मात्रा की प्रति लीटर पानी में घोलकर 10 दिन के अंतराल में छिड़काव किया जाय.
- रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग किया जाय.
म्लानि या उकठा रोग (Wilt disease)
यह रोग भारत वर्ष में मसूर बोये जाने वाले सभी क्षेत्र में लगने वाले प्रमुख रोग है.
रोग का कारक
यह फ्यूजेरियम आक्सीस्फेरम उपजाति लेंटिस नामक कवक से उत्पन्न होने वाला रोग है.
रोग की पहचान
रोग के लक्षण फसल के विकास की किसी भी अवस्था में प्रकट हो सकता है. रोग के लक्षण प्रायः बुवाई के 15 से 20 दिन बाद पत्तियों के पीलापन लेकर मुरझाने तथा बाद में सूखने के रूप में प्रकट होता है. यह प्रक्रिया धीरे-धीरे नीचे की तरफ बढ़ती जाती है. और अंत में पूरा पौधा मर जाता है. कभी-कभी पौधे के आंशिक रूप से ही प्रभावित होता है. रोगी पौधे की जड़े पूर्ण विकसित नही हो पाती है. तथा पौधा छोटा रह जाता है. रोगी पौधे की जड़ को यदि लम्बाई में फाड़कर देखा जाय तो बीचोबीच में भूरे रंग की लाइन सी दिखाई पड़ती है. यह अवस्था फूल आने की दशा में रोग ग्रसित पौधे में ज्यादा स्पष्ट दिखाई देता है.
रोग चक्र
यह रोग प्राथमिक रूप से मृदा में रोगकारक क्लैमाइडो जीवाणु के बने रहने से होता है. इसके अतरिक्त यह बीज जनित रोग भी है.
रोग की रोकथाम
- उचित फसल चक्र अपनाया जाय.
- रोग प्रतिरोधी प्रजातियाँ अपनाई जाय.
- बुवाई से पूर्व थीरम+बावस्टीन (2:1) के 3.0 ग्राम मिश्रण से प्रति किग्रा० बीज को शोधित किया जाय. या कैप्टान अथवा वेनलेट की 2.0 ग्राम मात्रा अथवा ट्राइकोडर्मा की 4.0 ग्राम मात्रा से प्रति किग्रा० बीज को शोधित किया जाय.
- ट्राइकोडर्मा की 2.5 किग्रा० मात्रा को 65 किग्रा० गोबर की खाद में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में खेत की तैयारी के समय मिलाया जाय.
किट्ट रोग (Kitt’s disease)
रोग के कारक
यह यूरोमाइसीज फैबी नामक कवक से उत्पन्न होने वाला रोग है.
रोग की पहचान
इस रोग से ग्रसित पौधे के तने में विकृति की दशा में तथा बाद में भूरा होकर मृत्यु हो जाती है. रोग की पिक्निडयम और इशियम दोनों अवस्थाएं पत्तियों और तनों पर देखि जा सकती है. पत्तियों के ऊपरी तथा निचली दोनों सतहों पर छोटे-छोटे बिखरे हुए तथा हल्के भूरे रंग के रूप में बनते है. कुछ समय पश्चात वाह्य त्वचा फट जाती है.
रोग चक्र
रोग कारक के यूरोडोबीजाणु तथा इशीयम बीजाणु फसल कटाई के बाद अत्यधिक गरमी के कारण मर जाते है. केवल टिलीयूरो बीजाणु ही प्राथमिक निवेश द्रव्य का कार्य करते है. यह रोग बीज द्वारा भी स्थानांतरित होता है.
रोग की रोकथाम
- रोग ग्रसित फसल के अवशेषों को इकठ्ठा करके नष्ट कर दिया जाय.
- 20 से 30 किग्रा० गंधक धूल को प्रति हेक्टेयर की दर से झुरकाव करके रोग के द्वितीय प्रसारण को रोका जा सकता है.
- बुवाई से पूर्व थीरम की 2.0 ग्राम मात्रा से प्रति किग्रा० बीज को शोधित किया जाय.
- फसल में रोग के लक्षण दिख्नने पर मैंकोजेब या जिनेब की 2.5 ग्राम मात्रा प्रति लीटर पानी की दर से घोलकर बनाकर 8 से 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव किया जाय.
- रोग प्रतिरोधी प्रजातियाँ का चयन किया जाय.
स्क्लेरोटीनिया झुलसा (Sclerotinia blight)
यह रोग भारत वर्ष के अलावा रूस, चीन, अमेरिका सहित कई अन्य देशों मे भी इस फसल का एक प्रमुख रोग है.
रोग कारक
यह स्क्लेरोटीनिया स्क्लेरोशियोरम नामक कवक से उत्पन्न होने वाला रोग है.
रोग की पहचान
पौधे के विकास काल की किसी भी अवस्था में यह रोग प्रकट हो सकता है. सबसे पहले तनों पर जलाव शोषित धब्बे बनते है. जो कि बाद में भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते है. और तने के काफी भाग को घेर लेते है. रोग ग्रसित भाग पर पहले छोटी-छोटी बाद में बड़ी-बड़ी स्क्लेरोशिया बनी हुई दिखाई देती है. कभी-कभी फलियों पर भी रोग के लक्षण दिखते है. ऐसी फलियों में बनने वाले बीज काले तथा सिकुड़े होते है.
रोग चक्र
यह स्क्लेरोशियमों के भूमि में बने रहने के कारण प्रमुख रूप में भूमि जनित है. रोग ग्रस्त बीज में भी प्राथमिक निवेश द्रव्य पाया जाता है. रोग का द्वितीय प्रसारण रोगी पौधों पर अधिक बने कवक जाल या छोटी स्क्लेरोशियमों द्वारा होता है.
रोग की रोकथाम
- रोग ग्रसित फसल के अवशेषों को इकठ्ठा करके नष्ट किया जाय.
- शीएत की ग्रीष्म कालीन गहरी जुताई की जाय.
- बुवाई समय से की जाय.
- बुवाई से पूर्व बीज को कार्बेन्डाजिम या कैप्टान की 2.0 ग्राम मात्रा से प्रति किग्रा० बीज को शोधित किया जाय.
- फसल में रोग के लक्षण दिखाते ही मेन्कोजेब की 2.5 ग्राम या कार्बेन्डाजिम की 1.0 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 8 से 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव किया जाय.
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स्क्लेरोशियम अंगमारी (Sclerosium cinder)
रोग के कारक
यह स्क्लेरोशियम रोल्फसाई नामक कवक द्वारा उत्पन्न होने वाला रोग है.
रोग की पहचान
रोग ग्रसित पत्तियों का हरापन धीरे-धीरे समाप्त होकर पीलापन आ जाता है. रोगी पौधे की नयी टहनियां रोग ग्रसित होकर लटक जाती है. जिससे पौधा शीघ्र ही सूख जाता है. ऐसे पौधे ऊपर खीचने पर जड़ सहित बाहर आ जाते है. पौधे के प्रभावी भाग पर भूरे रंग की स्क्लेरोशिया बनी हुई दिखाई पड़ती है. रोगकारक के कवक रोग ग्रसित तनों पत्तियों तथा शाखाओं पर फैले हुए दिखाई देते है.
रोग चक्र
रोगकारक कवक की स्क्लेरोशिया रोग ग्रसित पौधों के अवशेषों के साथ भूमियों में बनी रहती है. यही स्क्लेरोशिया प्राथमिक निवेश द्रव्य का कार्य करती है.
रोग की रोकथाम
- रोग प्रतिरोधी प्रजातियों का चयन किया जाय.
- खेत की ग्रीष्म कालीन जुताई करनी चाहिए.
- रोग ग्रसित फसल के अवशेषों को इकठ्ठा करके जला देना चाहिए.
- बुवाई से पूर्व थीरम+कार्बेन्डाजिम (2:1) के मिश्रण के 3.0 ग्राम या ट्राइकोडर्मा+कार्बेन्डाजिम या कार्बाक्सिन (3.0 ग्राम+1.0 ग्राम) के मिश्रण से प्रति किग्रा० बीज को शोधित किया जाय.
- खड़ी फसल में रोग के लक्षण दिखने पर मैंकोजेब अथवा जिनेब की 2.5 ग्राम या कार्बेन्डाजिम की 1.0 ग्राम मात्रा को प्रति लीटर पानी की दर से घोल बनाकर 8 से 10 दिन के अंतराल पर छिड़काव किया जाय.
निष्कर्ष
किसान भाईयों उम्मीद है, गाँव किसान (Gaon Kisan) के इस लेख से मसूर के प्रमुख रोग के बारे में और उनकी रोकथाम कैसे करे की पूरी जानकारी मिल पायी होगी. फिर भी आपका कोई प्रश्न हो तो कमेन्ट बॉक्स में कमेन्ट कर पूछ सकते है. इसके अलावा यह लेख आपको कैसा लगा कमेन्ट कर जरुर बताएं, महान कृपा होगी.
आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद, जय हिन्द.